गीतारहस्य भयवा कर्मयोग-परिशिष्ट । गी. ११.३), योग ( कर्मयोग), पादपूरक अव्यय 'ह' (गी..२.१) मादि शब्दों का प्रयोग गीता में, जिस भयं में शिया गया है, उस अर्थ में वे छन्द कालिदास प्रमृति के कान्यों में नहीं पाये जाते । और, पाउमेद ही से क्यों न हो, परतु गीता के 11.३५ शोक में नमस्कृत्वा' यह अपाणिनीय शब्द रखा गया है तथा गी.. ८ में 'शक्य अहं' इस प्रकार अपाणिनीय संधि भी की गई है। इसी तरह सेनानीनामहं स्कंदा' (गी. १०. २४) में जो सेनानीनां' पटी कारक है वह नी पाणिनि के अनुसार शुद नहीं है। प्रार्प-वृत्तरचना के उदाहरणों को स्वर्गीय तैलंग ने स्पष्ट करके नहीं बतलाया है। परन्तु इमें यह प्रतीत होता है, कि म्यारहवें अध्यायवाले विश्वरूप-वर्णन के (गी. 19. ५-५०) छत्तीसकों को लक्ष्य करके ही उन्होंने गीता की इंद-रचना को प्रापं कहा है। इन श्लोकों के प्रत्येक चरण में म्यारह अक्षर हैं, परन्तु गणों का कोई नियम नहीं है। एक इंद्रवज्रा है तो दूसरा पेंदवत्रा, तीसरा है शालिनी तो चीया किसी अन्य प्रकार का इस तरह क इत्तीस कॉमें, अर्याद ः चरणों में, मित्र मिन्न जाति के कुल न्यारह वरण देख पड़ते हैं। तथापि वहाँ यह नियम भी देख पड़ता है, कि प्रत्येक चरण में म्यारह प्रचर है, और उनमें से पहला, चौपा, पाठवा और मंतिम दो अक्षर गुरु हैं तया छठवा अवर प्रायः लघु ही है। इससे यह अनुमान किया जाता है, कि ऋग्वेद तथा उपनिपदों के त्रिभु के ढंग पर ही ये श्लोक रचे गये हैं। ऐसे म्यारह अचरों के विषम-वृत्त कालिदास के काव्यों में नहीं मिलते । हाँ, शाकुन्तल नाटक का "अमी-वेदि परितः क्लृप्तधियायाः" यह शोक इसी छंद में है। परन्तु कालिदास होने से ऋछंद' मयाद ऋग्वेद का छंद कहा है। इससे यह बात प्रगट हो जाती है, कि भार्प-वृत्तों के प्रचार के समय ही में गीता-प्रय की रचना हुई है। महाभारत के अन्य स्थलों में भी एक प्रकार के मार्प शब्द और वैदिक वृत्त देख पड़ते हैं। परन्तु इसके अतिरिक, इन दोनों प्रयों के भाषा-सादृश्य का दूसरा दृह प्रमाण यह है, कि महाभारत और गीता में एक ही से अनेक लोक पाये जाते हैं। महाभारत के सब श्लोकों की छानबीन कर यह निश्चित करना कठिन है, किरनमें से गीता में कितने श्लोक उपलब्ध हैं। पस्तु महामारत पढ़ते समय उसमें जो श्लोक न्यूनाधिक पाउमेद से गीता के श्लोकों के सश हमें जान पड़े, उनकी संख्या भी कुछ कम नहीं है। और, उनके आधार पर, मापा-सादृश्य के प्रश्न का निर्णय भी सहज ही हो सकता है। नीचे दिये गये श्लोक और श्लोकाध, गीता और महामारत (कलकत्ता की प्रति) में, शब्दशः अथवा एक-माघ शन्द की मित्रता होकर, ज्यों के त्यों मिन्नते है:- गीता। महामारत। 1. नानशास्त्रहरणाचार्य। मांमव (५१. ४); गोवा के हर श दुपाचन द्रोणाचार्य ने अपनी सेना का वर्णन कर रहा है।
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