पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५५९

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५२० गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट अद्धत किये गये हैं। और, इतने भिन्न भिन्न प्रकरणों में से गीता में इन श्लोकों का लिया जाना भी संभव नहीं है। अतएव, यही कहना पड़ता है, कि गीता और महाभारत के इन प्रकरणों का लिखनेवाला कोई एक ही पुरुष होना चाहिये । यहाँ यह भी बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है, कि जिस प्रकार मनुस्मृति के कई लोक महाभारत में मिलते हैं, * उसी प्रकार गीता का यह पूर्ण श्लोक " सहस्रयुग- पर्यंत " (८.१७) कुछ हेर-फेर के साथ, और यह श्लोका " श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् " (गी ३.३५ और गी. १८. ४७)- श्रेयान् ' के बदले 'वर' पाठान्तर होकर-मनुस्मृति में पाया जाता है, तथा " सर्वभूतस्थमा- स्मानं " यह श्लोकाध भी (गी. ६.२६) "सर्वभूतेषु चात्मानं" इस रूप से मनुस्मृति में पाया जाता है (मनु. १.७३, १०.६७; १२.६१)। महाभारत के अनुशासनपर्व म तो " मनुनाभिहितुशास्त्रं " (अनु. ४७. ३५) कह कर मनुस्मृति का स्पष्ट रीति से उल्लेख किया गया है। शब्द-सादृश्य के बदले यदि अर्थ-सादृश्य देखा जाय तो भी उक अनुमान दृढ़ हो जाता है। पिछले प्रकरणों में गीता के कर्मयोग-मार्ग और प्रवृत्ति -प्रधान भाग- वत-धर्म या नारायणीय-धर्म की समता का दिग्दर्शन हम कर ही चुके हैं। नाराय- णीय-धर्म में व्यक्त सृष्टि की उपपत्ति की जो यह परम्परा बतलाई गई है कि वासु- देव से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध और अनिरुद्ध से ब्रह्मदेव हुए, वाह गीता में नहीं ली गई है। इसके अतिरिक्त यह भी सच है, कि गीता-धर्म आर नारायणीय-धर्म में अनेक भेद हैं। परन्तु चतु!ई परमेश्वर की कल्पना गीता को मान्य मले न हो, तथारि गीता के इन सिद्धान्तों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि गीताधर्म और भागवतधर्म एक ही से हैं। वे सिद्धान्त ये हैं-एकन्यूह वासुदेव की भक्ति ही राजमार्ग है, किसी भी अन्य देवता की भक्ति की जाय वह वासुदेव ही को अर्पण हो जाती है, भक्त चार प्रकार के होते हैं, स्वधर्म के अनुसार सव कर्म करके भगवद्भक्त को यज्ञ-चक्र जारी रखना ही चाहिये और संन्यास लेना उचित नहीं है। पहले यह भी बतलाया जा चुका है कि विवस्वान्-मनु-इक्ष्वाकु मादि सांप्रदायिक परंपरा भी, दोनों ओर, एक ही है । इसी प्रकार सनत्सुजातीय, शुकानुप्रन, याज्ञवल्क्य-जनकसंवाद, अनुगीता इत्यादि प्रकरणों को पढ़ने से यह बात ध्यान में आ जायगी, कि गीता में वर्णित वेदान्त या अध्यात्मज्ञान भी उक्त प्रकरणों में प्रतिपादित ब्रह्मज्ञान से मिलता-जुलता है । कापिल-सांख्यशास्त्र के २५ तत्वों और गुणोत्कर्ष के सिद्धान्त से सहमत होकर भी भगवद्गीता ने जिस प्रकार यह माना है, कि प्रकृति और पुरुप के भी परे कोई नित्य तत्त्व है। उसी प्रकार शांतिपर्व के वलिष्ठ-कराल-जनक संवाद में और याज्ञवल्क्य-संवाद में विस्तार-पूर्वक यह •"प्राच्यधर्मपुस्तकमाला' में मनुमृति का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ है; उसमें बूलर साहब ने एक फ़ेहरिस्त जोड़ दी है, और यह बतलाया है, कि मनुस्मृति के कौन कौन से ठोक महाभारत में मिलते हैं (s. B. E. VOI. XXV. pp. 533 १६ देखो)