५२४ गीतारहस्य भयवा कर्मयोग-परिशिष्ट । नहीं है। परन्तु उसे कोई महा-रामायण नहीं कहता। फिर भारत ही को महा- भारत' क्यों कहते हैं? महाभारत के अन्त में यह बतलाया है, कि महत्व और मारवत्व इन दो गुणों के कारण, इस अन्य को महाभारत नाम दिया गया है (स्वर्गा. ५.४४) । परन्तु 'महाभारत' का सरल शब्दार्थ 'वड़ा भारत' होता है। और, ऐला अर्थ करने से, यह प्रश्न पठता है कि 'बड़े' मारत के पहले क्या कोई छोटा ' भारत भी था? और, उसमें गीता थी या नहीं ? वर्तमान महा- भारत के आदिपर्व में लिखा है, कि उपाख्यानों के अतिरिक्त महाभारत के श्लोकों की संख्या चौवीस हज़ार है (आ. १. १०१); और आगे चल कर यह भी लिखा है, कि पहले इसका 'जय ' नाम था (आ.६२.२०) 'जय' शब्द से भारतीय युद्ध में पाण्डवों के जय का बोध होता है। और, ऐसा अर्थ करने से, यही प्रतीत होता है, कि पहले भारतीय युद्ध का वर्णन 'जय' नामक ग्रन्थ में किया गया था; आगे चल कर उसी ऐतिहासिक ग्रन्थ में अनेक उपाख्यान जोड़ दिये गये और इस प्रकार महाभारत-एक बड़ा ग्रन्य हो गया, जिसमें इतिहास और धर्म-अधर्म- विवेचन का भी निरूपण किया गया है। आबलायनगृह्यसूत्रों के ऋषितर्पण में- समन्तु-जौमिनि-वैशंपायन-पैल-सूत्र-माप्य-भारत-महामारत-धर्माचायाः "(आ. गृ. ३. ४.४)-भारत और महाभारत दो भिन्न भिन ग्रन्थों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इससे भी उक्त अनुमान ही हद हो जाता है । इस प्रकार छोटे भारत का बड़े भारत में समावेश हो जाने से कुछ काल के याद छोटा 'भारत' नामकस्वतंत्र अन्य शेप नहीं रहा और स्वभावतः लोगों में यह समझ हो गई कि केवल 'महा. भारत' ही एक भारत-ग्रंथ है। वर्तमान महाभारत की पोथी में यह वर्णन मिलता है, कि व्यासजी ने पहले अपने पुत्र (शुक) को और अनन्तर अपने अन्य शिष्यों को भारत पढ़ाया था (आ. १. १०३); और आगे यह मी कहा है, कि समन्तु, जैमिनि, पैल, शुक और वैशंपायन, इन पाँच शिष्यों ने पाँच भिन्न भिन्न भारत- संहिताओं या महाभारतों की रचना की (आ. ६३.६०)। इस विषय में यह कया पाई जाती है, कि इन पाँच महाभारत में ले वैशंपायन के महाभारत को और जैमिनि के महाभारत में से केवल अश्वमेधपर्व ही को व्यासजी ने रख लिया। इसले, अब यह भी मालूम हो जाता है, कि ऋपितर्पण में भारत-महाभारत' शब्दों के पहले समन्नु आदि नाम क्यों रखे गये हैं । परन्तु यहाँ इस विषय में इतने गहरे विचार का कोई प्रयोजन नहीं है। रा०व० चिंतामणिराव वैद्य ने महाभारत के अपने टीका ग्रंथ में इस विषय का विचार करके जो सिद्धान्त स्थापित किया है वही हम सयुक्तिक मालूम होता है। अतएव यहाँ पर इतना कह देना ही यपेष्ट होगा कि वर्तमान समय में जो महाभारत उपलब्ध है वह भूल ने वैसा नहीं था, मारत या महाभारत के अनेक रूपान्तर हो गये हैं, और उस ग्रन्य को जो अन्तिम स्वरूप प्राप्त हुआ वही हमारा वर्तमान महाभारत है । यह नहीं कहा जा सकता, कि मूल-भारत में भी गीतो न रही होगी। हाँ, यह प्रगट है, कि सनत्सुजातीय,
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