पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग २ - गीता और उपनिषद् । ५२५ विदुरनीति, शुका प्रश्न, याज्ञयत्यय-जनक-संवाद, विष्णुसहस्त्रनाम, अनुगीता, नारायणीय-धर्म सादिप्रकरगों के समान ही वर्तमान गीता को भी महाभारतकार ने पहले ग्रन्थों के आधार पर ही लिखा है-नई रचना नहीं की है। तथापि, यह भी निधायपूर्वक नहीं कहा जा सकता. कि मूल-गीता में महाभारतकार ने कुछ भी हेरफेर न किया होगा। उपर्युफ विवेचन से यह बात सहज ही समझ में था सकती है कि वर्तमान सात लौ श्लोकों की नीता वर्तमान महाभारत ही का एक भाग है, दोनों की रचना भी एक ही ने की है, और वर्तमान महाभारत में वर्तमान नीता को किसी ने बाद में मिला नहीं दिया है । यांगे यह भी बतलाया जायगा कि वर्तमान महाभारत का समय कौन सा है, और मूल-गीता के विषय में हमारा मत पया है। भाग २-गीता और उपनिपद । श्य देखना चाहिये कि गीता और भित मिन उपनिषदों का परस्पर संबंध क्या है। वर्तमान महाभारत ही में स्थान स्थान पर सामान्य रीति से उपनिपदों का उल्लेख किया गया है और यहदारण्यक (१.३) संघा छांदोग्य (१.२) में वर्णित प्रागों- द्रियों के युद्ध का हाल भी अनुगीता (अश्व. २३) में ई तथा " न मे स्तेनो जनपद." आदि कैकेय-अश्वपति राजा के मुख से निकले हुए शब्द भी (छां. ५. ११.५), शान्तिपर्व में उक्त राजा की कथा का वर्णन करते समय, ज्यों के त्यों पाये जाते हैं (शां. ७७.८)। इसी प्रकार शान्तिपर्व के जनक-पंचशिख-संवाद में वृहदारण्यक(४. ५. १३) का यह विषय मिलता है, कि "न प्रेत्य संज्ञास्ति' अर्थात् मरने पर ज्ञाता को कोई संज्ञा नहीं रहती, क्योंकि यह बस में मिल जाता है। और, वहीं अंत में, प्रश्न (६.५) तथा मुंभक (३. २.८) उपनिपदों में पति नदी और समुद्र का हटान्त, नाम-रूप से विमुक्त पुरुष के विषय में दिया गया है।इंद्रियों को घोड़े कह कर ग्राहगा व्याध-संवाद (धन. २१०) और अनुगीता में बुद्धि को सारथी की जो उपमा दी गई है, वह भी कठोपनिषद् से ही ली गई है (फ. १.३.३); और कठोपनिषद् के ये दोनों श्लोक-एप सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा " (कठ. ३. १२) और " अन्यत्र धर्मादन्यसाधर्मात् " (कठ. २१४) भी शान्तिपर्व में दो स्थानों पर (१८७. २६ और ३३१. ४४) कुछ फेरफार के साथ पाये जाते हैं। श्वेताश्वतर का "सर्वतः पाणि- पाद० " लोक भी, जैसा कि पहले कह पाये हैं, महाभारत में अनेक स्थानों पर और गीता में भी मिलता है। परन्तु केवल इतने ही से यह सादृश्य पूरा नहीं हो जाता; इनके सिवा उपनिपदों के और भी बहुत से वाश्य महाभारत में कई स्थानों पर मिलते हैं। यही क्यों, यह भी कहा जा सकता है, कि महाभारत का अध्यात्म- ज्ञान प्रायः उपनिपदों से ही लिया गया है। गीतारहस्य के नवें और तेरहवें प्रकरणों में हमने विस्तारपूर्वक दिखला दिया है, कि महाभारत के समान ही भगवद्गीता का अध्यात्मज्ञान भी उपनिषदों के