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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५६७

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! ५२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । मैन्युपनिषद् के उपपादन को भी यही न्याय उपयुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार सांख्य-प्रक्रिया को बहिष्कृत करने की सीमा यहाँ तक आ पहुँची है, कि वेदान्त- सूत्रों में पञ्चीकरण के बदले छादोग्य उपनिपद् के अाधार पर प्रिवृत्करण ही से सृष्टि के नाम-रूपात्मक वैचिन्य की उपपत्ति वतलाई गई है (वेस. २. ४. २०)। सांख्यों को एकदम अलग करके अध्यात्म के क्षर-अक्षर का विवेचन करने की यह पद्धति गीता में स्वीकृत नहीं हुई है। तथापि, स्मरण रहे कि. गीता में सांस्यों के सिद्धान्त ज्यों के त्यों नहीं ले किये गये हैं। त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृति से, गुणो. त्कर्ष के तत्व के अनुसार, व्यक सृष्टि की उत्पत्ति होने के विषय से सांश्यों के जो सिद्धान्त हैं वे गीता को ग्राह्य हैं; और, उनके इस मत से भी गीता सहमत है, कि पुरुष निर्गुण हो कर द्रष्टा है । परन्तु द्वैत सांख्यज्ञान पर अद्वैत वेदान्त का पहले इस प्रकार प्राबल्य स्थापित कर दिया है, कि प्रकृति और पुरुप स्वतंत्र नहीं हैं वे दोनों उपनिपद् में वर्णित आत्मरूपी एक ही परब्रह्म के रूप अर्थात् विभूतियाँ हैं, और फिर सांख्या ही के क्षस्थत्तर- विचार का वर्णन गीता में किया गया है। उपनिषदों के ब्रह्मात्मैक्यरूप अद्वैत मत के साथ स्थापित किया हुआ Qती सांख्यों के सृष्टथुत्पत्ति- क्रम का यह मेल, गीता के समान, महाभारत के अन्य स्थानों में किये हुए अध्यात्म-विवेचन में मी पाया जाता है । और, ऊपर जो अनुमान किया गया है, कि दोनों ग्रंथ एक ही व्यक्ति के द्वारा रचे गये हैं, यह इस मेल से और भी दृढ़ हो जाता है। उपनिषदों की अपेक्षा गीता के उपपादन में जो दूसरी महाव-पूर्ण विशेषता है, वह व्यक्तोपासना अथवा भक्तिमार्ग है । भगवद्गीता के समान उपनिषदों में भी केवल यज्ञ-याग आदि कर्म ज्ञानदृष्टि ले गौण ही माने गये है, परन्तु व्यक मानव- देहधारी ईश्वर की उपासना प्राचीन उपनिषदों में नहीं देख पड़ती । उपनिपत्कार इस तत्व से सहमत हैं, कि अन्यक्त और निर्गुण परब्रह्म का प्राकलन होना कठिन है, इसलिये मन, आकाश, सूर्य, अग्नि, यज्ञ आदि सगुण प्रतीकों की उपासना करनी चाहिये । परन्तु उपासना के लिये प्राचीन उपनिपदों में जिन प्रतीकों का वर्णन किया गया है, उनमें मनुष्य-देहधारी परमेश्वर के स्वरूप का प्रतीक नहीं वतलाया गया है। मैन्युपनिषद् (७. ७) में कहा है, कि रुद्र, शिव, विष्णु, अच्युत नारायण, ये सब परमात्मा ही के रूप हैं, श्वेताश्वतरोपनिषद् में महेश्वर' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं और " ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः" (वे. ५. १३) तथा " यस्य देव परा भक्तिः " (वे. ६. २३) आदि वचन भी श्वेताश्वतर में पाये जाते हैं। परन्तु यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता, कि इन वचनों में नारायण, विष्णु आदि शब्दों से विष्णु के मानवदेहधारी अवतार ही विवक्षित हैं। कारण यह है, कि रुद्र और विष्णु-ये दोनों देवता वैदिक-अर्थात् प्राचीन है। तब यह कैसे मान लिया जाय कि " यज्ञो वै विष्णुः" (ते. सं. १. ७.४) इत्यादि प्रकार से यज्ञयाग ही को विष्णु की उपासना का जो स्वरूप प्रागे दिया गया है, वही उप-