भाग २ -गतिा और उपनिपद । ५२७ १३) और श्वेताश्वतरोपनिषद् में शब्दशः मिलता है (वे. ३. १६); और "मणो- रणीयांसं " तथा "मादित्यवणं तमसः परप्तार " पद भी गीता (८.६) में और श्वेताश्वतरोपनिषद् (३.६.२०) में एक ही से हैं। इनके अतिरिक्त गीता और उपनिषदों का शब्द-सादृश्य यह है, कि " सर्वभूतस्थमात्मानं " (गी. ६. २९) और " दैश्च सर्वैरहमेव यो" (गी. १५. १५) ये दोनों श्लोकार्ध कैव. ल्योपनिषद् (१.१०.२.३) में ज्यों के त्यों मिलते हैं। परन्तु इस शब्द-साश्य के विपय पर अधिक विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि इस बात का किसी को भी संदेह नहीं है, कि गीता का पेदान्त-विषय उपनिपदों के आधार पर प्रतिपादित किया गया है। हमें विशेष कर यही देखना है कि उपनिपदों के विवेचन में और गीता के विवेचन में कुछ अन्तर है या नहीं; और यदि है, तो किस बात में । अतएव, अब उसी विषय पर दृष्टि डालना चाहिये। उपनिषदों की संख्या बहुत है। उनमें से कुछ उपनिषदों की भापा तो इतनी प्राचीन है कि उनका और पुराने उपनिषदों का असम-कालीन होना सहज ही मालूम पड़ जाता है। अतएव गीता और उपनिपदों में प्रतिपादित विषयों की सध्शता का विचार करते समय, इस प्रकरगा में हमने प्रधानता से उन्हीं उपनिषदों को तुलना के लिये लिया है, जिनका उलेख महासूत्रों में है। इन उपनिपदों के अर्थ को और गीता के अध्यात्म को जब हम मिला कर देखते हैं, तब प्रथम यही योध झोता है, कि यरि दोनों में निर्गुण परब्रम का स्वरूप एक सा है तथापि निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति का वर्णन करते समय, अविद्या' शब्द के बदले 'माया या 'ज्ञान' शब्द ही का उपयोग गीता में किया गया है । नवे प्रकरण में इस बात का स्पष्टीकरण कर दिया गया है, कि 'माया' शब्द श्वेताश्वतरोपनिषद् में आ चुका है और नाम-रूपात्मक प्रविद्या के लिये ही यह दूसरा पर्याय शब्द है। तथा यह भी उपर यतला दिया गया है, कि श्वेताश्वतरोपनिषद् के कुछ श्लोक गीता में अक्षरशः पाये जाते हैं। इससे पहला अनुमान यह किया जाता है, कि-" सर्व खल्विदं ब्रम" (छां. ३. १४.१) या " सर्वमात्मानं पश्यति " (पृ. ४. ४. २३) अथवा " सर्वभूतेपुचात्मानं० " (ईश. ६)-इस सिद्धान्त का अथवा उप- निपदों के सारे अध्यात्म-ज्ञान का यद्यपि गीता में संग्रह किया गया है, तथापि गीता-अन्य तव धना होगा, जब कि नाम-रूपात्मक अविद्या को उपनिपदों में ही माया' नाम प्राप्त हो गया होगा। अव यदि इस बात का विचार करें कि उपनिषदों के और गीता के उपपादन में क्या भेद है, तो देख पड़ेगा कि गीता में कापिल-सांख्यशास्त्र को विशेष महत्व दिया गया है। वृहदारण्यक और छांदोग्य दोनों उपनिषद् ज्ञान-प्रधान है, परन्तु उनमें तो सांख्य-प्रक्रिया का नाम भी देख नहीं पड़ता; और, कठ आदि उपनिषदों में यद्यपि भव्यक्त, महान् इत्यादि सांख्यों के शब्द आये हैं, तथापि यह स्पष्ट है कि उनका मर्थ सांख्य-प्रक्रिया के अनुसार न कर के वेदान्त-पद्धति के अनुसार करना चाहिये। .
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