. . २० गीतारहस्य अथवा धर्मयोगशाल। आये तव वै प्रेक्षकों को भिन्न भिन्न स्वरूप के जैसे योद्धा को वज्र-सदृश, स्त्रियों को कामदेव-सदृश, अपने माता पिता को पुत्र-सदृश-दिखने लगे थे; इसी तरह गीता के एक होन पर भी वह मिन्न मित्र सम्प्रदायवालों को भिन्न भिन्न स्वरूप में दिखने लगी है। आप किसी भी सम्प्रदाय को लें, यह वात स्पष्ट मालूम हो जायगी कि, उसको सामान्यतः प्रमाणभूत धर्मग्रन्थों का अनुसरण ही करना पड़ता है। क्योंकि ऐसा न करने से वह सम्प्रदाय सब लोगों की दृष्टि में अमान्य हो जायगा । इसलिये वैदिक धर्म में अनेक संप्रदायों के होने पर भी, कुछ विशेष बातों को छोड़-जैसे ईश्वर, जीव और जगत् का परस्पर सस्वन्ध-शेप सब वात सय सम्प्र- दायों में प्रायः एक ही सी होती हैं। इसी का परिणाम यह देख पड़ता है कि हमारे धर्म के प्रमाणभूत ग्रन्या पर जो सांप्रदायिक माप्य या टीकाएँ हैं उनमें, मूलग्रन्थों के फी सदी नब्बे से भी अधिक वचनों या श्लोकों का भावार्थ, एक ही सा है। जो कुछ भेद है, वह शेप वचनों या श्लोकों के विपय ही में है। यदि इन वचनों का सरल अर्थ लिया जाय तो वह सभी सम्प्रदायों के लिये समान अनुकूल नहीं हो सकता । इसलिये भिन्न भिन्न सांप्रदायिक टीकाकार इन वचनों में से जो अपने सम्प्रदाय के लिये अनुकूल हो उन्हीं को प्रधान मान कर और अन्य सव वचनों को गौण समझ कर, अथवा प्रतिकूल वचनों के अर्थ को किसी युक्ति से बदल कर या सुवोध तथा सरल वचनों में से कुछ श्लेपार्थ या अनुमान निकाल कर, यह प्रति- पादन किया करते हैं कि हमारा ही सम्प्रदाय उक प्रमाणों से सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ, गीता २.१२ और ७६, ३.१६, ६.३: और १८.२ श्लोकों पर हमारी टीका देखो। परन्तु यह वात सहज ही किसी की समझ में आ सकती है कि उक्त सांप्रदायिक रीति से किसी ग्रन्थ का तात्पर्य निश्चित करना; और इस बात का अभिमान न करके कि गीता में अपना ही संप्रदाय प्रतिपादित हुआ है अथवा अन्य किसी भी प्रकार का शमिमान न करके समग्र ग्रंथ की स्वतंत्र रीति से परीक्षा करना और उस परीक्षा ही के आधार पर अन्य का मथितार्थ निश्चित करना, ये दोनों वात स्वभावतः अत्यन्त मित्र हैं। अन्य के तात्पर्य निर्णय की सांप्रदायिक दृष्टि सदोष है इसलिये इसे यदि छोड़ दें तो अव यह बतलाना चाहिये कि गीता का तात्पर्य जानने के लिये दूसरा साधन है क्या । ग्रन्थ, प्रकरण और वाश्यों के अर्थ का निर्णय करने में मीमांसक लोग अत्यन्त कुशल होते हैं। इस विषय में उन लोगों का एक प्राचीन और सर्व- मान्य श्लोक है:- उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वता फलम् । अर्थवादोपपत्ता च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये ॥ जिसमें वे कहते हैं कि किसी भी लेख, प्रकरण अथवा अन्य के तात्पर्य का निर्णय करने में, उक्त श्लोक में कही हुई, सात वात, साधन-(लिंग) स्वरूप हैं, इसलिये इन सब बातों पर अवश्य विचार करना चाहिये। इनमें सबसे पहली
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