पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । भाग ३ गीता और ब्रह्मसूत्र । ज्ञान-प्रधान, भक्ति-प्रधान और योग-प्रधान उपनिपदों के साथ भगवद्गीता में जो सादृश्य और भेद है, उसका इस प्रकार विवेचन कर चुकने पर यथार्थ में ब्रह्म- सूत्रों और गीता की तुलना करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, मिन्न भिन्न उपनिषदों में भिन्न मिन ऋपियों के बतलाये हुए अध्यात्म-सिद्धान्तों का नियम बद्ध विवेचन करने के लिये ही वादरायणाचार्य के ब्रह्मसूत्रों की रचना हुई है, इसलिये उनमें उपनिपदों से भिन्न विचारों का होना सम्भव नहीं । परन्तु भगवद्गीतां के तेर- हवें अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार करते समय ब्रह्मसूत्रों का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार किया गया है:- ऋषिभिर्वहुधा गीतं छंदोभिर्विविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितः ।। अर्थात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का “ अनेक प्रकार से विविध छंदों के द्वारा (अनेक) ऋपियाँ ने पृथक पृथक् और हेतुयुक्त तथा पूर्ण निश्चयात्मक ब्रह्मसूत्रपदों से भी विवेचन किया है " (गी. १३.); और यदि इन ब्रह्मसूत्रों को तफा वर्तमान वेदान्तसूत्रों को एक ही मान लें तो कहना पड़ता है, कि वर्तमान गीता वर्तमान वेदान्तसूत्रों के वाद बनी होगी । अतएव गीता का काननिर्णय करने की दृष्टि से इस बात का अवश्य विचार करना पड़ता है कि ब्रह्मसूत्र कौन से हैं। क्योंकि वर्तमान वेदा. न्तसूत्रों के अतिरिक्त ब्रह्मपुत्र नामक कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं पाया जाता और न उसके विषय में कहीं वर्णन ही है । और, यह कहना तो किसी प्रकार उचित नहीं जंचता, कि वर्तमान ब्रह्मसूत्रों के बाद गाता वनी होगी, क्यों की गीता की प्राची. नता के विपय में परम्परागत समझ चली आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि, प्रायः इसी कठिनाई को ध्यान में ला कर शांकरभाष्य में "ब्रह्मसूत्रपदैः” का अर्थ " श्रुतियों के अथवा उपनिषदों के ब्रह्मपतिपादक वाक्य " किया गया है। परन्तु, इसके विपरीत, शांकरभाष्य के टीकाकार आनन्दगिरि, और रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य प्रभृति गीता के अन्यान्य भाष्यकार यह कहते हैं कि यहाँ पर ब्रह्म- सूत्रपदैश्चैव " शब्दों से " अथातो ब्रह्मजिज्ञासा " इन बादरायणाचार्य के ब्रह्म- सूत्रों का ही निर्देश किया गया है। और, श्रीधरस्वामी को दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। अतएव इस श्लोक का सत्यार्थ हमें स्वतंत्र रीति से ही निश्चित करना चाहिये । क्षेत्र और क्षेत्र का विचार " ऋपियों ने अनेक प्रकार से पृथक् " कहा है। और, इसके सिवा (चैव), " हेतुयुक और विनिश्चयात्मक ब्रह्मसूत्रपदों ने भी " वही अर्थ कहा है। इस प्रकार वैव'(और भी) पद से इस बात का स्पष्टीकरण इस विषय का विचार परलोकवासी तेलंग ने किया है । इसके सिवा सन् १८९५ में इसी विषय पर प्रो. तुकाराम रामचन्द्र अमळनेरकर बी.ए.ने भी एक निवन्ध प्रकाशित किया है।