पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। विचार करने से यही अनुमान होता है, कि मूल भारत भार तदन्तर्गत गीता को वर्तमान स्वरूप देने का तथा ब्रह्मसूत्रों की रचना करने का काम भी एक यादरायण व्यासजी ने ही किया होगा। इस कयन का यह मतलब नहीं, कि यादरायगणाचार्य ने वर्तमान महामारत की नवीन रचना की। हमारे फयन का भावार्य यह है। महामारत अन्य के प्रति विस्तृत होने के कारण सम्भव है कि यादरायणाचार्य के समय उसके कुछ भाग इधर उधर बिखर गये हा या लुप्त भी हो गये हो। ऐसी अवस्था में तत्कालीन उपलब्ध महाभारत के भागों की खोज करके, तथा अन्य में जहाँ जहाँ अपूर्णता, अशुद्धियाँ और त्रुटियाँ देख पढ़ी वहाँ वहाँ उनका संशोधन और उनकी पूर्ति करके, तथा अनुक्रमणिका प्रादि जोड़ कर यादरायणाचार्य ने इस अन्य का पुनरूजीवन किया हो अथवा उसे वर्तमान स्वरूप दिया हो। यह बात प्रसिद्धकि मराठी साहित्य में ज्ञानेश्वरी-अन्य कालाही संशोधन एकनाय महाराज में किया था, धार, यह कया भी प्रचलित है, कि एकवार संस्कृत का व्याकरा-महामान्य प्रायः लुप्त हो गया था और उसका पुनरुद्धार चन्द्रशेखराचार्य को करना पड़ा। अब इस यात की ठीक लोक पपति ला हो जाती है कि महा. भारत के अन्य प्रकरणों में गीता के श्लोक श्यों पाये जाते है। तया यह बात भी सहज ही हल हो जाती है, कि गीता में ग्रामसूत्रों का पट उलेम्स और ब्रह्ममृत्रों में 'स्मृति' शब्द से गीता का निर्देश पों किया गया। जिस गीता के प्राधार पर वर्तमान गीता बनी है वह यादरायणाचार्य के पहले भी उपलब्ध थी, इसी कारगा ग्रामसूत्रों में स्मृति शब्द से उसका निर्देश किया गया; और महामारत का संशोधन करते समय गीता में यह बतलाया गया, कि क्षेत्र क्षेत्र का विस्तार-

  • पिच्छे प्रकरणों में हमने यह बताया है, कि मानप यगन्त-मरची मुख्य ग्रंथ है

और इसी प्रकार गीता कर्मयोग-विषयक प्रधान मंथ है। अब यदि हमारा का अनुमान स.. हो, कि मामूत्र और गीता की रचना के ध्यासनी ने ही की, नोशन दोनों शाल का का उन्दी को मानना पड़ता है। हमने या पात अनुमान द्वारा कार की चुके हैं। परन्तु कुंभकोगस्थ नाचार्य ने, दाक्षिणात्य पाट के अनुसार, महाभारत की जो एक में प्रकाशित की है उनमें शान्तिपर्व के २१२ अध्याय में (वाजयामाम- प्रकरण में ) पन दात का वर्णन करते समय, कि युग में भारंग में मिा निसा यार और इतिहास चित प्रकार निर्मित हुए, ३४ वां ओक इस प्रकार दिया है:- वेदान्तयनयोग व वेविट मानविदिमः। द्वैपायनो निजमार शिल्पशासं भूगः पुनः॥ इस लोक में वेदान्तकर्मयोग ' एकवचनान्न पद है, परन्तु उतका अर्थ वेदान्त और कपयोग' ही करना पड़ता है । अथवा, यइ भी प्रतीत होता है, कि येदान्तं कर्मयोग च ' यसरी मूल पाठ होगा और लिखने समय या छापते समय 'त' के ऊपर अनुस्वार छुट गया हो। दसवेक में यह साफ साफ कर दिया गया है, कि वेदान्त और कर्मयोग, दोनों शान यात- जी को प्राप्त हुए थे और शिवशाल न्यू को मिला था। परन्तु यह ठीक बंबई के गगात पोथी हाल