भाग ३ - गीता और ब्रह्मसूत्र । पतलाया जा चुका है कि देवयान और पितृयाण गति में क्रमानुसार, उत्तरायण क छः महीने और दक्षिणायन के छः महीने होते हैं, और उनका अथ काल प्रधान न करके बादरायणाचार्य कहते हैं कि उन शब्दों से तत्तत्कालाभिमानी देवता अभि- प्रेत हैं (वसू. ४. ३. ४) । अब यह प्रश्न हो सकता है, कि दक्षिणायन और उत्त. रायण शब्दों का कालवाचक अर्थ क्या कभी लिया ही न जावे ? इसलिये " यागनः प्रति च स्मर्यते " (ब्रसू. ४.. २. २१) अर्थात् ये काल "स्मृति में योगियों के लिये विहित माने गये हैं" इस सूत्र का प्रयोग किया गया है। और, गीता (८.२३) में यह बात साफ साफ कह दी गई है, कि “यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः" अर्थात् ये काल योगियों को विहित हैं । इससे-भाष्यकारों के मता- नुसार यही कहना पड़ता है, कि उक्त दोनों स्थानों पर ब्रह्मसूत्रों में स्मृति' शब्द स भगवद्गीता ही विवक्षित है। परन्तु जब यह मानते हैं, कि भगवद्गीता में ब्रह्मसूत्रों का स्पष्ट उल्लेख है और ब्रह्मसूत्रों में स्मृति 'शब्द से भगवद्गीता का निर्देश किया गया है, तो दोनों में काल-दृष्टि से विरोध उत्पन्न हो जाता है। वह यह है भगवद्गीता में ब्रह्म- सूत्रों का साफ़ साफ उल्लेख है इसलिये ब्रह्मसूत्रा का गीता के पहले रचा जाना निश्चित होता है, और ब्रह्मसूत्रों में स्मृति ' शब्द से गीता का निर्देश माना जाय तो गीता का ब्रह्मसूत्रों के पहले होना निश्चित हुआ जाता है । ब्रह्मसूत्रों का एक बार गीता के पहले रचा जाना और दूसरी बार उन्हीं सूत्रों का गीता के बाद रचा जाना सम्भव नहीं। अच्छा; अव यदि इस झगड़े से बचने के लिये “ब्रह्मसूत्रपदैः" शब्द से शांकरभाष्य में दिये हुए अर्थ को स्वीकार करते हैं, तो " हेतुमद्भिर्विनि- श्चितैः" इत्यादि पदों का स्वारस्य ही नष्ट हो जाता है और, यदि यह मानें कि प्रससूत्रों के स्मृति ' शब्द से गीता क अतिरिक्त कोई दूसरा स्मृति-प्रन्थ विवक्षित होगा, तो यह कहना पड़ेगा कि सभी भाष्यकारों ने भूल की है । अच्छा; यदि उनकी भूल कहें, तो भी यह बतलाया नहीं जा सकता कि स्मृति ' शब्द से कौन सा अन्य विवक्षित है । तब इस भड़चन से कैसे पार पावें? हमारे मतानुसार इंस भड़चन से बचने का केवल एक ही मार्ग है। यदि यह मान लिया जाय कि जिसने ब्रह्मसूत्रों की रचना की ह उसी ने मूल भारत तथा गीता को बर्तमान स्वरूप दिया है, तो कोई अड़चन या विरोध ही नहीं रह जाता । ब्रह्मसूत्रों को 'न्याससूत्र' कहने की रीति पड़ गई है और “शेषत्वात्पुरुषार्थवादो यथान्यष्विति जैमिनिः" (वसू. ३. ४.२) सूत्र पर शांकरभाष्य की टीका में आनन्दगिरि ने लिखा है कि जैमिनि, वेदान्तसूत्रकार व्यासजी के शिष्य थे और प्रारम्भ के मंगलाचरण में भी, " श्रीमद्वधासपयोनिधिनिधिरसौ" इस प्रकार उन्हों ने ब्रह्मसूत्रों का वर्णन किया है।यह कथा महाभारत के आधार पर हम ऊपर बतला चुके हैं कि महाभारत- कार व्यासजी के पैल, शुक, सुमंतु, जैमिनि और वैशंपायन नामक पांच शिष्य थे और उनको व्यासजी ने महाभारत पढ़ाया था। इन दोनों बातों को मिला कर
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