५३८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । अध्याय के दूसरे पाद में पहले कहा है, कि वासुदेव से संकर्षण का होना अर्थात् भागवत धर्मीय जीवसंयंधी उत्पत्ति संभव नहीं (धेसू. २. २. ४२), और फिर यह कहा है कि मन जीव की एक इंद्रिय है इसलिये जीव से प्रद्युम्न (मन) का होना भी संभव नहीं (वेसू. २. २. ५३); क्योंकि लोक व्यवहार की ओर देखने से तो यही बोध होता है, कि कती से कारण या साधन उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार बादरायगाचार्य ने, भागवतधर्म में वर्णित जीव की उत्पत्ति का, युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। संभव है कि भागवतधर्मवाले इस पर यह उत्तर दें, कि हम वासुदेव (ईश्वर), संकर्षण (जीव), प्रद्युम्न (मन) तथा अनिल्द (अहंकार) को एक ही समान ज्ञानी समझते हैं और एक से दूसरे की उत्पत्ति को लाक्षणिक तथा गौण मानते हैं। परन्तु ऐसा मानने से कहना पड़ेगा, कि एक मुख्य परमेश्वर के बदने चार मुख्य परमेश्वर है । अतएव ब्रह्मसूत्रों में कहा है, कि यह उत्तर भी समर्पक नहीं है। और, यादरायणाचार्य ने अंतिम निर्णय यह किया है, कि यह मत-परमेश्वर से जीव का उत्पन्न होना-वेदों अर्थात् उपनिपदों के मत के विरुद्ध अतएव त्याज्य है (वेसू. २. २. ४४, ४५) । यद्यपि यह यात सच है कि भागवत धर्म को कर्म-प्रधान भक्तितत्व भगवद्गीता में लिया गया है; तथापि गीता का यह भी सिद्धान्त है, कि जीव वासुदेव से उत्पन्न नहीं हुमा, किन्तु वह नित्य परमात्मा ही का 'अंश' (गी. १५.७)। जीय-विषयक यह सिद्धान्त मूल भागवत धर्म से नहीं लिया गया इसलिये यह यतलाना आवश्यक था, कि इसका माधार क्या है क्योंकि यदि ऐसा न किया जाता तो संभव है कि यह भ्रम उपस्थित हो जाता, कि चतुर्दूह-मागवतधर्म के प्रवृत्ति प्रधान भक्ति-तत्व के साथ ही साथ जीव की उत्पत्ति-विषयक कल्पना भी गीता सहमत है। अतएव चेन-क्षेत्रज्ञ- विचार में जव जीवात्मा का स्वरूप यतलाने का समय माया तय, अर्थात् गीता के तेरहवें अध्याय के प्रारंभ ही में, यह स्पष्ट रूप से कह देना पड़ा कि "क्षेत्र के अर्थात् जीव के स्वरूप के सम्बन्ध में हमारा मत मागवतधर्म के अनुसार नहीं, बरन उपनिषदों में वर्णित ऋपियों के मतानुसार है। और, फिर उसके साथ ही साप स्वभावतः यह भी कहना पड़ा है, कि भिन्न मिस ऋपियों ने मिन भित्र उपनिषदों में पृथक् पृथक् उपपादन किया है इसलिये उन सब की ब्रह्मसूत्रों में की गई एक- वाक्यता (वेस्. २. ३. ४३) ही हमें प्राय है। इस टि से विचार करने पर यह प्रतीत होगा, कि भागवतधर्म के भक्ति-मार्ग का गीता में इस रीति से समावेश किया गया है, जिससे वे भाप दूर हो जाय कि जो ग्रामसूत्रों में भागवतधर्म पर लाये गये हैं। रामानुजाचार्य ने अपने चेदान्तसूत्र-भाष्य में उक्त सूत्रों के अर्थ को चदल दिया है (वेस्. राभा. २. २. ४२-४५ देखो)। परन्तु हमारे मत में ये अर्थ क्लिष्ट भतएव अग्राह्य हैं। थीवो साहब का झुकाव रामानुज-माप्य में दिये गये अर्थ की भोर ही है परन्तु उनके लेखों से तो यही ज्ञात होता है कि इस वाद का यथार्थ स्वरूप उनके ध्यान में नहीं पाया। महाभारत में, शांतिपर्व के अन्तिम
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