पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता । ५३४ भाग में नारायणीय अथवा भागवत-धर्म का जो वर्णन है, उसमें यह नहीं कहा है, कि वासुदेव से जीव अर्थात् संकर्षण उत्पन्न हुआ; किन्तु पहले यह बत- लाया है कि “ जो चासुदेव है वही (स एव) संकर्पण अर्थात् जीव या क्षेत्रज्ञ है (शां. ३३६. ३६ तथा ७१; और ३३४. २८ तथा २६ देखो) और इसके बाद संकर्षण से प्रद्युम्न तक की केवल परम्परा दी गई है । एक स्थान पर तो यह साफ साफ कह दिया है, कि भागवत-धर्म को कोई चतुर्दूह, कोई निन्यूइ, कोई द्विन्यूह और अन्त में कोई एकन्यूह भी मानते हैं (मभा. शां. ३४८.५७)। परन्तु भाग- वत-धर्म के इन विविध पनों को स्वीकार न कर, उनमें से सिर्फ वही एक मत वर्तमान गीता में स्थिर किया गया है, जिसका मेल क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के परस्पर-सम्बन्ध में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों से हो सके । और, इस बात पर ध्यान देने पर, यह प्रश्न ठीक तौर से हल हो जाता है, कि ब्रह्मसूत्रों का उल्लेख गीता में क्यों किया है? अथवा, यह कहना भी अत्युक्ति नहीं कि भूल गीता में यह एक सुधार ही किया गया है। भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता । गीतारहस्य में अनेक स्थानों पर तथा इस प्रकरण में भी पहले यह बतला दिया गया है, कि उपनिपदों के ब्रह्मज्ञान तथा कपिल-सांस्य के घर-प्रचार-विचार के साथ भक्ति और विशेषतः निष्काम-कर्म का मेल करके कर्मयोग का शास्त्रीय रीति से पूर्णतया समर्थन करना ही गीता-ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। परन्तु इतने विषयों की एकता करने की गीता की पद्धति जिनके ध्यान में पूरी तरह नहीं मा सकती, तथा जिनका पहले ही से यह मत हो जाता है कि इतने विषयों की एकता हो ही नहीं सकती, उन्हें इस बात का आभास हुआ करता है, कि गीता के बहुतेरे सिद्धान्त परस्पर विरोधी हैं । उदाहरणार्थ, इन प्राक्षेपकों का यह मत है, कि तेरहवें अध्याय का यह कथन-कि इस जगत् में जो कुछ है वह सब निर्गुण ब्रह्म है, सातवें अध्याय के इस कथन से बिलकुल ही विरुद्ध है, कि यह सब सगुण वासुदेव ही है। इसी प्रकार भगवान् एक जगह कहते है कि 'मुझे शत्रु भौर मित्र समान हैं" (६. २९) और दूसरे स्थान पर यह भी कहते हैं कि "ज्ञानी तथा भक्तिमान् पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय हैं" (७.१७, १२. १९) ये दोनों बाते परस्पर विरोधी हैं । परन्तु हमने गीतारहस्य में अनेक स्थानों पर इस बात का स्पष्टीकरण कर दिया है कि वस्तुतः ये विरोध नहीं है, किन्तु एक ही बात पर एक बार मध्यात्म-दृष्टि से और दूसरी बार भक्ति की दृष्टि से विचार किया गया है, इसलिये यद्यपि दिखने ही में ये विरोधी बातें कहनी पड़ी, तथापि अन्त में व्यापक तत्वज्ञान की दृष्टि से गीता में उनका मेल भी कर दिया गया है। इस पर भी कुछ लोगों का यह भाक्षेप है, कि अध्यक्त ब्रह्मज्ञान और व्यक्त परमे-