पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । श्वर की भक्ति में यद्यपि उक्त प्रकार से मेल कर दिया गया है, तथापि मूल गीता में इस मेल का होना सम्भव नहीं; क्योंकि मूल गीता वर्तमान गीता के समान परस्पर-विरोधी वातों से भरी नहीं थी-उसमें वेदान्तियों ने अथवा सांख्यशास्त्रा- भिमानियों ने अपने अपने शास्त्रों के भाग पीछे से घुसेड़ दिये हैं। उदाहरणार्य, प्रो. गावे का कथन है, कि मूल गीता में मंक्ति का मेल केवल सांख्य तथा योग सी से किया गया है, वेदान्त के साथ और मीमांसकों के कर्ममार्ग के साथ मक्ति का मेल कर देने का काम किसी ने पीछे से किया है । मूल गीता में इस प्रकार जो श्लोक पीछे से जोड़े गये उनकी, अपने मतानुसार, एक तालिका भी उसने जर्मन भाषा में अनुवादित अपनी गीता के अन्त में दी है! हमारे मतानुसार ये सव कल्पनाएँ भ्रममूलक हैं । वैदिक-धर्म के भिन्न भिन्न अंगों की ऐतिहासिक परम्परा और गीता के 'सांख्य ' तथा 'योग' शब्दों का सच्चा अर्थ ठीक ठीक न समझने के कारण, और विशेषतः तत्वज्ञान-विरहित अर्थात् केवल भक्ति-प्रधान ईसाई धर्म ही का इतिहास उक्त लेखकों (प्रो. गावे प्रभृति) के सामने रखा रहने के कारण, उक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो गये हैं । ईसाई धर्म पहले केवल भक्ति प्रधान या और ग्रीक लोगों के तथा दूसरों के तत्त्वज्ञान से उसका मेन करने का कार्य पीछे से किया गया है । परन्तु, यह वात हमारे धर्म की नहीं । हिदुस्थान में भक्तिमार्ग का उदय होने के पहले ही मीमांसकों का यज्ञमार्ग, उपनिषत्कारों का ज्ञान, तथा सांख्य और योग-इन सब को परिपक्क दशा प्राप्त हो चुकी थी। इसलिये पहले ही से हमारे देशवासियों को स्वतन्त्र रीति से प्रतिपादित ऐसा भक्तिमार्ग कमी भी मान्य नहीं हो सकता था, जो इन सब शास्त्रों से और विशेष करके उपनिपदों में वर्णित ब्रह्मज्ञान से अलग हो । इस बात पर ध्यान देने से यह मानना पड़ता है कि गीता के धर्मप्रतिपादन का स्वरूप पहले ही से प्रायः वर्तमान गीता के प्रति- पादन के सदृश ही था । गीता-रहस्य का विवेचन भी इसी बात की ओर ध्यान देकर किया गया है । परन्तु यह विषय अत्यन्त महत्व का है, इसलिये संक्षेप में यहाँ पर यह बतलाना चाहिये, कि गीता-धर्म के मूलस्वरूप तथा परम्परा के सम्बन्ध में, ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर, इमारे मत में कौन कौन सी वातें निप्पन्न होती हैं। गीतारहस्य के दसवें प्रकरण में इस बात का विवेचन किया गया है,कि वैदिक धर्म का अत्यन्त प्राचीन स्वरूप न तो भक्तिप्रधान, न तो ज्ञान-प्रधान और न योग- प्रधान ही था; किन्तु वह यज्ञमय अर्थात् कर्म प्रधान था, और वेदसंहिता तथा ब्राह्मणों में विशेषतः इसी यज्ञ-याग धादि कर्म-प्रधान धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आगे चल कर इसी धर्म का व्यवस्थित विवेचन जैमिनि के मीमांसासूत्रों में किया गया है इसीलिये उसे 'मीमांसक-मार्ग' नाम प्राप्त हुमा । पल्तु, यद्यपि

  • मीमांसक' नाम नया है, तथापि इस विषय में तो बिलकुल ही सन्दह नहीं, कि

न्यज्ञ-याग आदि धर्म अत्यन्त प्राचीन है। इतना ही नहीं, किन्तु इसे ऐतिहासिक