पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८४

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तब उनका भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता। भारंभ में ही यह कथा है ( भाग. स्कं.१ अ. ४ और ५ देखो), कि जय व्यासजी ने देखा कि महाभारत में, अतएव गीता में भी, नैष्कर्म्य-प्रधान भागवत- धर्म का जो निरूपण किया गया है उसमें भक्ति का जैसा चाहिये वैसा वर्णन नहीं है, और " भाक्ति के बिना केवल नैष्कर्म्य शोभा नहीं पाता, मन कुछ उदास और अप्रसन्न हो गया एवं अपने मन की इस तलमलाहट को दूर करने के लिये नारदजी की सूचना से उन्हों ने भक्ति के माहात्म्य का प्रति- पादन करनेवाले भागवत-पुराण की रचना की । इस कथा का ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर देख पड़ेगा, कि मूल भागवतधर्म में अर्थात् भारतान्तर्गत भागवतधर्म में नैवयं को जो श्रेष्ठता दी गई थी वह जब समय के हेर-फेर से कम झोने लगी और उसके बदले जव भक्ति को प्रधानता दी जाने लगी, तब भागवत- धर्म के इस दूसरे स्वरूप का (बधीत भक्तिप्रधान भागवतधर्म का ) प्रतिपादन करने के लिये यह भागवत-पुराणरूपी मेवा पीछे तैयार किया गया है। नारदपत्र- रात्र ग्रंथ भी इसी प्रकार का अर्थात केवल भक्तिप्रधान है और उसमें द्वादश स्कंधों के भागवत पुराण का तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण, विष्णुपुराण, गीता और महा- भारत का नामोल्लेख कर स्पष्ट निर्देश किया गया है ( ना. पं. २. ७. २८-३२१ ३. १४.७३, और ४.३. १५४ देखो)। इसलिये यह प्रगट है, कि भागवतधर्म के मूलस्वरूप का निर्णय करने के लिये इस ग्रंथ की योग्यता भागवतपुराण से भी कम दर्जे की है। नारदसून तथा शांडिल्यसून कदाचित् नारदपञ्चरात्र से भी कुछ प्राचीन हो; परन्तु नारदसूत्र में व्यास और शुक (ना० सू०८३ ) का उल्लेख है इसलिये वह भारत और भागवत के बाद का है और, शांडिल्यसूल में भगवद्गीता के श्लोक ही उद्धत किये गये हैं (शां. सू.६, १५ और ८३) अतएव यह सूत्र यद्यपि नारदसून (८३)से भी प्राचीन हो, तथापि इसमें संदेह नहीं कि यह गीता और महाभारत के अनंतर का है। अतएव, भागवतधर्म के मूल तथा प्राचीन स्वरूप का निर्णय अंत में महाभारतान्तर्गत नारायणीयाख्यान के आधार से ही करना पड़ता है। मागवतपुराण (१. ३. २४) और नारदपञ्चरात्र (४. ३. १५६-१५६, ४.८,८१) ग्रंथों में बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा है। परन्तु नारायणीयाख्यान में वर्णित दशावतारों में बुद्ध का समावेश नहीं किया गया है- पहला अवतार हंस का और आगे कृष्ण के बाद एकदम कल्कि अवतार बतलाया है (मभा. शां. ३३९. १००)। इससे भी यही सिद्ध होता है, कि नारायणीया- ख्यान भागवत-पुराण से और नारदपञ्चरात्र से प्राचीन है। इस नारायणीयाख्यान में यह वर्णन है, कि नर तथा नारायण (जो परब्रह्म ही के अवतार है) नामक दोषियों ने नारायणीय अर्थात् भागवतधर्म को पहले पहल जारी किया, और उनके कहने से जब नारद ऋषि श्वेतद्वीप को गये तब वहाँ स्वयं भगवान् ने नारद को इस धर्म का उपदेश किया। भगवान् जिस श्वेतद्वीप में रहते हैं वह क्षीरसमुद्र में है, और वह क्षीरसमुद्र मेरुपर्वत के उत्तर में है, इत्यादि नारायणीयाख्यान की गी. र.६९