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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८८

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भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता । होती है, कि श्रीकृष्ण ने भागवत-धर्म को, ईसा से लगभग १४०० वर्ष पहले अथवा बुद्ध से लगभग ८०० वर्ष पहले, प्रचलित किया होगा। इस पर कुछ लोग यह आप करते हैं, कि श्रीकृष्ण तथा पांडवों के ऐतिहासिक पुरुष होने में कोई सन्देह नहीं, परन्तु श्रीकृष्ण के जीवन-चरित्र में उनके अनेक रूपान्तर देख पड़ते है-जैसे श्रीकृष्ण नामक एक क्षत्रिय योद्धा को पहले महापुरुष का पद प्राप्त हुआ, पश्चात् विष्णु का पद मिला और धीरे धीरे अन्त में पूर्ण परब्रह्म का रूप प्राप्त हो गया-इन सब अवस्थाओं में प्रारम्भ से अन्त तक बहुत सा काल बीत चुका होगा, और इसी लिये भागवतधर्म के उदय का तथा भारतीय युद्ध का एक ही काल नहीं माना जा सकता। परन्तु यह आक्षेप निरर्थक है। किसे देव मानना चाहिये और किसे नहीं मानना चाहिये' इस विषय पर आधुनिक तर्कज्ञों की समझ में तथा दो चार हजार वर्ष पहले के लोगों की समझ (गी. १०.४१) में बड़ा अन्तर हो गया है। श्रीकृष्ण के पहले ही बने हुए उपनिषदों में यह सिद्धान्त कहा गया है, कि ज्ञानी पुरुष स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है (बृ. ४. ४.६); और मैन्युपनिषद् में यह साफ़ साफ़ कह दिया है, कि रुद, विष्णु, अच्युत, नारायण, ये सब ब्रह्म ही हैं (मैन्यु.७.७) । फिर श्रीकृष्ण को परब्रह्मत्व प्राप्त होने के लिये अधिक समय लगने का कारण ही क्या है? इतिहास की ओर देखने से विश्वस- नीय बौद्ध ग्रंथों में भी यह बात देख पड़ती है, कि बुद्ध स्वयं अपने को ब्रह्मभूत' (सेलसुत्त. १४, थेरगाथा ८३१) कहता था; उसके जीवन-काल ही में उसे देव के सदश सम्मान दिया जाता था; उसके स्वर्गस्थ होने के बाद शीघ्र ही उसे देवाधि- देव' का अथवा वैदिक-धर्म के परमात्मा का स्वरूप प्राप्त हो गया था और उसकी पूजा भी जारी हो गई थी। यही बात ईसामसीह की भी है। यह बात सच है, कि बुद्ध तथा ईसा के समान श्रीकृष्ण संन्यासी नहीं थे, और न भागवतधर्म ही निवृत्ति प्रधान है। परन्तु केवल इसी आधार पर, बौद्ध तथा ईसाई-धर्म के मूल पुरुषों के समान, भागवतधर्म-प्रवर्तक श्रीकृष्ण को भी, पहले ही से ब्रह्म अथवा देव का स्वरूप प्राप्त होने में किसी बाधा के उपस्थित होने का कोई कारण देख नहीं पड़ता। इस प्रकार, श्रीकृष्ण का समय निश्चित कर लेने पर उसी को भागवत-धर्म का उदय-काल मानना भी प्रशस्त तथा सयुक्तिक है परन्तु सामान्यतः पश्चिमी पंडित ऐला करने में क्यों हिचकिचाते हैं, इसका कारण कुछ और ही है। इन पंडितों में से अधिकांश का अब तक यही मत है, कि खुद ऋग्वेद का काल ईसा के पहले लग- भग १५०० वर्ष, या वहुत हुआ तो २००० वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं एव उन्हें अपनी दृष्टि से यह कहना असम्भव प्रतीत होता है, कि भागवत-धर्म ईसा के लगभग १४०० वर्ष पहले प्रचलित हुआ होगा। क्योंकि वैदिकधर्म-साहित्य से यह क्रम निर्विवाद सिद्ध है. कि ऋग्वेद के वाद यज्ञ-याग आदि कर्म प्रति- पादक यजुर्वेद और ब्राह्मण-ग्रंथ बने, तदनन्तर ज्ञान-प्रधान उपनिषद् और सांस्य-