पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८७

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५४८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। माने जावे * । कुछ लोग-और विशेषतः कुछ पश्चिमी तर्कज्ञानी-यह तर्क कियों करते हैं, कि श्रीकृष्ण यादव और पांढव, तथा भारतीय युद्ध आदि ऐतिहासिक घटनाएं नहीं है, ये सव कल्पित कथाएँ है और कुछ लोगों के मन में तो महाभारत अध्यात्म विषय का एक बृहत रूपक ही है। परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों के प्रमाणों को देखकर किसी भी निष्पक्षपाती मनुष्य को यह मानना पड़ेगा, कि उक्त शंकाएँ बिलकुल निराधार है। यह बात निर्विवाद है, कि इन कथाओं के मूल में इतिहास ही का आधार है। सारांश, हमारा मत यह है कि श्रीकृष्ण चार पांच नहीं हुए, वे केवल एक ही ऐतिहासिक पुरुष थे । अव श्रीकृष्णजी के अवतार-काल पर विचार करते समय रा० ब० चिंतामणिराव वैद्य ने यह प्रतिपादन किया है कि श्रीकृष्ण यादव, पांडव तथा भारतीय युद्ध का एक ही काल-अर्थात् कलियुग का प्रारम्भ -है। पुराणगणना के अनुसार उस काल से अब तक पांच हजार से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं और यही श्रीकृष्णजी के अवतार का यथार्थ काल है। परन्तु पांडवों से लगा कर शककाल तक के राजाओं की, पुराणों में वर्णित, पीढ़ियों से इस काल का मेल नहीं देख पड़ता । अतएव भागवत तथा विष्णुपुराण में जो यह वचन ई, कि "परीक्षित राजा के जन्म से नन्द के अभिषेक तंक १११५- अथवा १०१५-वर्ष होत हैं" (माग. १२. २. २६ और विष्णु. ४. २४.३२), उसी के आधार पर विद्वानों ने अब यह निश्चित किया है, कि ईसाई सन् के लग- मग १४०० वर्ष पहले भारतीय युद्ध और पांडव हुए होंगे । अर्थात् श्रीकृष्ण का अवतार-काल भी यही है और इस काल को स्वीकार कर लेने पर यह बात सिद्ध श्रीकृष्ण के चारत्र में पराक्रम, मक्ति और वेदान्त के अतिरिक्त गोपियों को रासक्रीड़ा का समावेश होता है और ये बातें परस्पर-विरोधी है, इसलिये आजकल कुछ विद्वान् यह प्रतिपादन किया करते हैं, कि महामारत का कृष्ण मिन्न, गीता का भिन्न और गोकुश का कन्हया भी भिन्न है । डॉ. मांडारकर ने अपने "वैष्णव, शैव आदि पंध " सम्बन्धी अंग्रेजी ग्रंथ में इसी मतं को स्वीकार किया है। परन्तु हमारे मत में यह ठीक नहीं है। यह बात नहीं, कि गोपियों की कथा में जो श्रृंगार का वर्णन है वह वाद में न आया हो; परन्तु केवल उतने ही के लिये यह मानने की कोई आवश्यकता नहीं, कि श्रीकृष्ण नाम के कई मिन्न मिन्न पुरुष हो गये, और इसके लिये कल्पना के सिवा कोई अन्य आधार भी नहीं है। इसके सिवा, यह भी नहीं, कि गोपियों की कथा का प्रचार पहले मागवतकाल ही में हुआ हो; किन्तु शककाल के आरम्भ में यानी विक्रम संवत् १३६ के लगमग अश्वघोष विरचित बुद्धचरित्र (४.१४ ) मैं और भास कविकृत बालचरित नाटक (३. २) में भी गोपियों का उल्लेख किया गया है। अतएव इस विषय में हमें डॉ.भांडारकर के कथन से चिंतामणिराव वैध का मत अधिक सयुक्तिक प्रतीत होता है। 1 राववहादुर चिंतामणिराव वैध का यह मत उनके महाभारत के टीकात्मक अंग्रेजी ग्रंथ में है। इसके सिवा, इसी विषय पर आपने सन १९१४ में डेकन कॉलेज एनिवर्सरी के समय जो व्याख्यान दिया था, उसमें भी इस बात का विवेचन किया था।