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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५९

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गीतारहस्य यथवा कर्मयोगशाल। लिये और कुछ वर्णन भी कर देता है । उक्त कारणों याप्रसंगों के अतिरिक्त और भी अन्य कारण हो सकते हैं और कभी कमी तो कुछ भी विशेष कारण नहीं होता। ऐसी अवस्था में ग्रंथकार जो वर्णन करता है वह यद्यपि विषयान्तर नहीं हो सकता तथापि वह केवल गौरव के लिये या स्पष्टीकरण के लिये ही किया जाता है, इसलिये यह नहीं माना जा सकता कि टक वर्णन हमेशा सत्य ही होगा । अधिक क्या कहानाय, कमी कभी स्वयं ग्रंथकार यह देखने के लिये सावधान नहीं रहता कि ये अप्रधान वा अक्षरशः सत्य हैं या नहीं । अतएव ये सय बातें प्रमाणभूत नहीं मानी जाती; अर्थात् यह नहीं माना जाता कि इन भिन्न भिन्न वातों का, अन्यकार के सिद्धान्त पक्ष के साथ, कोई घना सम्बन्ध है; उलटा यही माना जाता है कि ये सब बातें प्रागंतुक अर्थात् केवल प्रशंसा या स्तुति ही के लिये हैं। ऐसा समझ कर ही मीमांसक लोग इन्हें 'अर्थवाद' कहा करते हैं और इन अर्थवादात्मक बातों को छोड़ कर, फिर अन्य का तात्पर्य निश्चित किया करते हैं। इतना कर लेने पर, उपपत्ति की ओर भी ध्यान देना चाहिये । किसी विशेष बात' को सिद्ध कर दिखलाने के लिये बाधक प्रमाणों का खंडन करना और साधक प्रमाणों का तशास्त्रानुसार मंटन करना उपपत्ति' अथवा 'उपपादन' कहलाता है। उपक्रम और उपसंहार रूप आद्यन्त के दो छोरों के स्थिर हो जाने पर, वीच का मार्ग, अर्यवाद और उपपत्ति की सहायता से निश्चित किया जा सकता है। अर्थवाद से यह मालूम हो सकता है कि कौन सा विपय अ-प्रस्तुत और मानुषंगिक (प्रधान) है । एक वार अर्थवाद का निर्णय हो जाने पर, ग्रन्थ-तात्पर्य का निश्चय करने- वाला मनुष्य, सब टेढ़े मेढ़े रास्तों को छोड़ देता है। और ऐसा करने पर, जब पाठक या परीक्षक सीधे और प्रधान मार्ग पर आ जाता है, तब वह उपपत्ति की सहायता से अन्य के प्रारम्भ से अंतिम तात्पर्य तक, श्राप ही आप पहुँच जाता है। हमारे प्राचीन मीमांसकों के ठहराये दुप, ग्रंथ तात्पर्य निर्णय के, ये नियम सव देशों के विद्वानों को एक समान मान्य है, इसलिये इनकी उपयोगिता और आवश्यकता के सम्बन्ध में यहाँ अधिक विवेचन करने की आवश्यकता नहीं है।।

  • अर्थवाद का वर्णन यदि वस्तुस्थिति ( यथार्थता ) के आधार पर किया गया शे तो

उसे अनुवाद ' कहते हैं। यदि विरुद्ध रोति से किया गया हो तो उसे 'गुगवाद' कहते है। और यदि इससे भिन्न प्रकार का हो तो उसे भूतार्थवाद ' कहते हैं।' अथवाद' सामान्य शब्द है; उस्के मत्यासाय प्रमाण से उक्त तीन भेद किये गये हैं यिन्य-तात्पर्य-निर्णय के ये नियम अंग्रेजी अदालतों में भी देख जाते हैं। उदाहरणार्थ मान लीजिये कि किसी फैसले का कुछ मतलब नहीं निकलता। तव हुक्मनामे को देख कर उस फैसले के अर्थ का निर्णय किया जाता है । और, यदि किसी फैसले में कुछ ऐसी बातें हॉ दो मुख्य विषय का निर्णय करने में आवश्यक नहीं हैं तो वे दूसरे मुकदमों में प्रमाण (नजीर ) नहीं मानी जाती । ऐसी बातों को अंग्रेजी में आमिटर टिक्या' (Obiter Dicta ) अर्थात् 'बाह्य विधान' कहते हैं, यथार्थ में यह अर्थवाद ही का एक भेद है।