विषयप्रवेश। २३ इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि, क्या मीमांसकों के उक्त नियम संप्रदाय चलानेवाले प्राचार्यों को मालूम नहीं थे ? यदि ये सब निगम उनके ग्रंथों ही में पाये जाते हैं, तो फिर उनका बताया हुआ गीता का तात्पर्य एकदेशीय कैसे कहा जा सकता है? इसका उत्तर इतना ही है कि एक बार किसी की टि सांप्र- दायिक (संकुचित) बन जाती है तब वह व्यापकता का स्वीकार नहीं कर सकता -तब वह किसी न किसी रीति से यही सिद्ध करने का यत्न किया करता है कि प्रमाण- भूत धर्मग्रंथों में अपने ही संप्रदाय का वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों के तात्पर्य के विषय में सांप्रदायिक टीकाकारों की, पहले से ही ऐसी धारणा हो जाती है कि, यदि उक्त ग्रंथों का कुछ दूसरा अर्थ हो सकता हो जो उनके सांप्रदायिक अर्थ से भिन्न हो, तो वे यह समझते हैं कि उसका हेतु कुछ और ही है। इस भकार जब वे पहले से निश्चित किये हुए अपने ही संप्रदाय के अर्थ को सत्य मानने लगते हैं. और यह सिद्ध कर दिखाने का यत्न करने लगते हैं कि वही अर्थ सब धार्मिक ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया है, तब वे इस बात की परवा नहीं करते कि इम मीमांसाशास के कुछ नियमों का उलंघन कर रहे हैं। हिन्दू धर्मशास्त्र के मिताक्षरा, दायभाग इत्यादि ग्रंथों में स्मृतिवचनों की व्यवस्था या एकता इसी तत्वानुसार की जाती है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि यह बात केवल हिन्दू धर्मग्रंथों में ही पाई जाती है। फ्रिस्तानों के आदिग्रंथ चाइयल और मुसलमानों के कुरान में भी, इन लोगों के सैकड़ों सांप्रदायिक ग्रंथकारों ने, ऐसा ही अर्थान्तर कर दिया है और इसी तरह ईसाइयों ने पुरानी बाइबल के कुछ वाक्यों का अर्थ यहूदियों से मिल माना है। यहाँ तक देखा जाता है कि, जय कभी यह बात पहले ही से निश्चित कर दी जाती है कि किसी विषय पर अमुक अंथ या लेख ही को प्रमाण मानना चाहिये, और जब कभी इस प्रमाणभूत तथा नियमित ग्रंथ ही के आधार पर सब बातों का निर्णय करना पलता है, तब तो ग्रंथार्थ- निर्णय की उसी पद्धति का स्वीकार किया जाता है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। आज कल के बड़े बड़े कायदे-पंडित, वकील और न्यायाधीश लोग, पहले ही प्रमाणभूत कानूनी किताबों और फैसलों का अर्थ करने में, जो खींचा- तानी करते हैं उसका रहस्य भी यही है । यदि सामान्य लौकिक वातों में यह हाल है, तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि हमारे प्रमाणभूत धर्मग्रंथों --उपनिपद्, वेदान्तसूत्र और गीता में भी ऐसी खींचातानी होने के कारण उन पर भिन्न भिन्न संप्रदायों के अनेक भाष्य और टीकाग्रंथ लिखे गये हैं। परन्तु इस सांप्रदायिक पद्धति को छोड़ कर, यदि उपर्युक्त मिमांसकों की पद्धति से भगवद्गीता के उपक्रम, उपसंहार आदि को देखें तो मालूम होजावंगा कि भारतीय युद्ध का प्रारंभ होने के पहले जय कुरुक्षेत्र में दोनों पक्षों की सेनाएँ लड़ाई के लिये सुसजित हो गई थी, और जव एक दूसरे पर शस्त्र चलने ही वाला था, कि इतने में अर्जुन ब्रह्मज्ञान की बड़ी बड़ी बातें बतलाने लगा और
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