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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५९५

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गीतारहत्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । भारत के प्रारंभ में यह कया है, कि जब भारतीय युद्ध समाप्त हो चुका और जब पांडवों का पन्ती (पौत्र) जनमेजय सर्प-सत्र कर रहा था, तब वहाँ वैशंपायन ने जनमेजय को पहले पहल गीता-सहित भारत सुनाया था; और आगे जब सौती ने शौनक को सुनाया, तभी से भारत प्रचलित हुआ। यह वात प्रगट है, कि सौती आदि पौराणिकों के मुख से निकल कर आगे भारत को काव्यमय ग्रंय का स्थायी स्वरूप प्राप्त होने में कुछ समय अवश्य बीत गया होगा। परन्तु इस काल का निर्णय करने के लिये कोई साधन उपलब्ध नहीं है। ऐसी अवस्था में यदि यह मान लिया जाय, कि भारतीय युद्ध के बाद लगभग पांच सौ वर्ष के भीतर ही आप महाकाव्यात्मक मूल भारत निर्मित हुआ होगा, तो कुछ विशेष साहस की वात नहीं होगी। क्योंकि बौद्ध धर्म के ग्रंथ, बुद्ध की मृत्यु के बाद इससे भी नल्दी तैयार हुए हैं। अब आप महाकाव्य में नायक का केवल पराक्रम बतला देने से ही काम नहीं चलता किन्तु उसमें यह भी बतलाना पड़ता है, कि नायक जो कुछ करता है वह उचित है या अनुचित; इतना ही क्यों, संस्कृत के अतिरिक अन्य साहित्यों में जो उक प्रकार के महाकाव्य है उनसे भी यही ज्ञात होता है, कि नायक के कार्यों के गुण-दोषों का विवेचन करना आप महाकान्य का एक प्रधान भाग होता है । अर्वाचीन दृष्टि से देखा जाय तो कहना पड़ेगा, कि नायकों के कार्यों का समर्थन केवल नीतिशास्त्र के आधार पर करना चाहिये। किन्तु प्राचीन समय में, धर्म तथा नीति में पृथक् भेद नहीं माना जाता था, अतएव उक्त सम. र्थन के लिये धर्म-दृष्टि के सिवा अन्य मार्ग नहीं था। फिर यह बतलाने की आव- श्यकता नहीं, कि जो भागवतधर्म भारत के नायकों को ग्राह्य हुआ था, अथवा जो उन्हीं के द्वारा प्रवृत्त किया गया था, उसी मागवतधर्म के आधार पर उनके कार्यों का समर्थन करना भी आवश्यक था। इसके सिवा दूसरा कारण यह भी है, कि मागवतधर्म के अतिरिक तत्कालीन प्रचलित अन्य वैदिकधर्मपंय न्यूनाधिक रीति से अथवा सर्वथा निवृत्ति-प्रधान थे, इसलिये उनमें वर्णित धर्मतत्वों के आधार पर भारत के नायकों की वीरता का पूर्णतया समर्थन करना संभव नहीं था। अतएव कर्मयोग-प्रधान भागवतधर्म का निरूपण महाकान्यात्मक मूल भारत ही में करना आवश्यक या। यही मूल गीता है। और यदि भागवतधर्म के मूलस्वरूप का उपपत्तिसहित प्रतिपादन करनेवाला सब से पहला ग्रंथ यह न भी हो, तो मी यह ड्यूल अनुमान किया जा सकता है कि यह आदि-ग्रंथों में से एक अवश्य है और इसका काल ईसा के लगभग ६०० वर्ष पहले है। इस प्रकार गीता यदि मागवतधर्म-प्रधान पहला ग्रंथ न हो, तो भी वह मुख्य ग्रंथों में से एक अवश्य है इसलिये इस बात का दिग्दर्शन करना मावश्यक था, कि उसमें प्रतिपादित निष्काम कर्मयोग तत्कालीन प्रचलित अन्य धर्म-पंथों से-अर्थात् कर्मकांड से, औप- निपदिक ज्ञान से, सांख्य से, चित्त-निरोधल्पी योग से तया भक्ति से भी अवि- रुद्ध है। इतना ही नहीं, किन्तु यही इस ग्रंथ का मुख्य प्रयोजन भी कहा जा सकता