भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता। है। वेदान्त और मीमांसा शास्त्र पछि बने हैं, इसलिये उनका प्रतिपादन मूल गीता में नहीं आ सकता और यही कारण है कि कुछ लोग यह शंका करते हैं कि वेदान्त विषय गीता में पीछे मिला दिया गया है। परन्तु नियमबद्ध वेदान्त और मीमांसा शास्त्र पीछे भले ही बने हाँ; किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन शास्त्रों के प्रतिपाद्य विषय बहुत प्राचीन हैं और इस बात का उल्लेख हम ऊपर कर ही आये हैं। अतएव मूल गीता में इन विषयों का प्रवेश होना कालदृष्टि से किसी प्रकार विपरीत नहीं कहा जा सकता । तथापि हम यह भी नहीं कहते, कि जब मूल भारत का महाभारत बनाया गया होगा तव, मूलगीता में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ होगा । किसी भी धर्म-पन्थ को लीजिये, उसके इतिहास से तो यही बात प्रगट होती है, कि उसमें समय समय पर मत- भेद होकर अनेक उपपन्य निर्माण हो जाया करते हैं। यही वात भागवतधर्म के विषय में कही जा सकती है । नारायणीयोपाख्यान (ममा. शां३४८.५७) में यह बात स्पष्ट रूप से कह दी गई है, कि भागवतधर्म को कुछ लोग तो चतुयूँह- अर्थात् वासुदेव, संकर्पणा, प्रद्युम्न अनिरुद्ध, इस प्रकार चार व्यूहों का मानते हैं और कुछ लोग त्रिव्यूह, द्विन्यूह, या एकन्यूह ही मानते हैं । आगे चल कर ऐसे ही और भी भनेक मतभेद उपस्थित हुए होंगे । इसी प्रकार प्रौपनिषदिक सांख्यज्ञान की भी वृद्धि हो रही थी । अतएव इस बात की सावधानी रखना अस्वाभाविक या भूल गीता के हेतु के विरुद्ध भी नहीं था, कि मूल गीता में जो कुछ विभिन्नता हो, वह दूर हो जावे और बढ़ते हुए पिंड-ब्रह्मांड-ज्ञान ले भागवत- धर्म का पूर्णतया मेल हो जावे । हमने पहले "गीता भौर ब्रह्मसुन्न शीर्षक लेख में यह बतला दिया है, कि इसी कारण से वर्तमान गीता में ब्रह्मसूत्रों का उल्लेख पाया जाता है। इसके सिवा, उक्त प्रकार के अन्य परिवर्तन भी मूल गीता में हो गये होंगे। परन्तु मूल गीता ग्रन्थ में ऐसे परिवर्तनों का होना भी सम्भव नहीं था । वर्तमान समय में गीता की जो प्रामाणिकता है, उससे प्रतीत नहीं होता कि वह उसे वर्तमान महाभारत के याद मिली होगी। ऊपर कह भाये हैं, कि ब्रह्मसूत्रों में " स्मृति " शब्द से गीता को प्रमाण माना है । मूल भारत का महाभारत होते समय यदि मूल गीता में भी बहुत से परिवर्तन हो गये होते, तो इस प्रामाणिकता में निस्संदेह कुछ बाधा आ गई होती । परन्तु वैसा नहीं दुधा- -और, गीता अन्य की प्रामाणिकता कहीं अधिक बढ़ गई है। अतएव यही अनुमान करना पड़ता है, कि मूल गीता में जो कुछ परिवर्तन हुए होंगे, वे कोई महत्व के न थे, किन्तु वे ऐसे थे जिनसे मूल अन्य के अर्थ की पुष्टि हो गई है। भिन्न भिन्न पुराणों में वर्तमान भगवद्गीता के नमूने की जो अनेक गीताएँ कही गई हैं उनसे यह बात स्पष्ट विदित हो जाती है, कि उक्त प्रकार से भूल गीता को जो स्वरूप एक बार प्राप्त हो गया था वहीं अब तक बना हुआ है उसके बाद उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुमा । क्योंकि, इन सब पुराणों में से
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