पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६०६

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भाग ५ वर्तमान गीता का काल । देशाभावे द्रव्यामावे साधारणे कुयोन्मनसा वाचयेदिति । तदाह भगवान्- पत्रं पुण्यं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति । तदहं. भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ इति और आगे चल कर कहा है कि भक्ति से नन्न हो कर इन मंत्रों को पढ़ना चाहिये- " भक्तिनम्नः एतान् मन्त्रानधीयीत "। उसी गृपशेपसूत्र के तीसरे प्रश्न के अन्त में यह भी कहा है कि “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " इस द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करने से अश्वमेध का फल मिलता है। इससे यह बात पूर्णतया सिद्ध होती है कि घौधायन के पहले गीता प्रचलित घी; और वासुदेवपूजा भी. सर्वमान्य समझी जाती थी। इसके सिवा घौधायन के पितृमेधसूत्र के तृतीय प्रश्न के प्रारम्भ ही मैं यह वाक्य है जातस्य पे मनुष्यस्य ध्रुयं मरणमिति विजानीयात्तस्माज्जाते न प्रहप्येन्मते च न विपीदेत । इससे सहज ही देख पड़ता है, कि यह गीता के "जातत्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिक्षायेऽयं न त्वं शोचितुमईसि " इस श्लोक से सूझ पड़ा होगा; और उसमें उपयुक्त " पत्रं पुष्पं० " श्लोक का योग देने से तो कुछ शंका ही नहीं रह जाती। ऊपर यतला चुके हैं, कि स्वयं महाभारत का एक श्लोक बौधायन- सूत्रों में पाया जाता है। बुलर साहेव ने निश्चित किया है, कि बौधायन का काल मापस्तम्ब के सौ-दो लौ वर्ष पहले होगा और आपस्तम्ब का काल ईसा के पहले तीन सौ वर्ष से कम हो नहीं सकता । परन्तु हमारे मतानुसार उसे कुछ इस भोर हटाना चाहिये। क्योंकि महाभारत में मेष-वृषभ आदि राशियां नहीं हैं और कालमाधव में तो बौधायन का “मीनमेपयोमपतृपभयोर्वा वसन्तः यह वचन दिया गया है यही वचन परलोकवासी शंकर बालकृष्ण दीक्षित के भारतीय ज्योति:- शास्त्र (पृ० १०२) में भी लिया गया है । इससे भी यही निश्चित अनुमान किया जाता है, कि महाभारत बौधायन के पहले का है । शकारम्भ के कम से कम चार सौ वर्ष पहले बौधायन का समय होना चाहिये और पांच सौ वर्ष पहले महाभारत तथा गीता का अस्तित्व था। परलोकवासी काळे ने धौधायन के कान को ईसा के सात-आठ सौ वर्ष पहले का निश्चित किया है, किन्तु यह ठीक नहीं है। जान पड़ता है कि बौधायन का राशि-विषयक वचन उनके ध्यान में न आया होगा। (७) उपर्युक्त प्रमाणों से यह बात किसी को भी स्पष्ट रूप से विदित हो जायगी, कि वर्तमान गीता शक के लगभग पाँच सौ वर्ष पहले अस्तित्व में थी; वौधायन तथा आश्वलायन भी उससे परिचित थे और उस समय से श्रीशंकराचार्य के समय तक उसकी परम्परा अविच्छिन्न रूप में दिखलाई जा सकती है । परन्तु

  • Soo Sacrod Books of the East Series, Vol. II. Intro. p. xliii.

and also the same Series, Vol. XIV. Intro. p. Xliii.