पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६०५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। वर्णन इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में किया गया है। इससे यह बात स्पष्टतया विदित होती है, कि उस समय भगवद्गीता प्रमाण तथा पूजनीय मानी जाती थी। इसी लिये उसका उक्त प्रकार से अनुकरण किया गया है, और यदि ऐसा न होता तो उसका कोई भी अनुकरण न करता । अतएव सिद्ध है, कि इन पुराणों में जो अत्यन्त प्राचीन पुराण हैं उनसे भी भगवद्गीता कम से कम सौ-दो-सौ वर्ष अधिक प्राचीन अवश्य होगी। पुराण-काल का प्रारम्भ-समय सद् ईसवी के दूसरे शतक से अधिक अर्वाचीन नहीं माना जा सकता, अतएव गीता का काल कम से कम शकारम्भ के कुछ थोड़ा पहले ही मानना पड़ता है। (५) ऊपर यह बतला चुके हैं, कि कालिदास और वाण गीता से परिचित थे। कालिदास से पुराने मास कवि के नाटक हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। उनमें से 'कर्णभार' नामक नाटक में वारहवाँ श्लोक इस प्रकार है:- हतोऽपि लभते स्वर्ग जित्वा तु लभते यशः । उभे बहुमते लोके नास्ति निष्फलता रणे ।। यह श्लोक गीता के " हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग०" (गी. २. ३७) श्लोक का समाना- र्थक है। और जव कि भास कवि के अन्य नाटकों से यह प्रगट होता है कि वह महाभारत से पूर्णतया परिचित था, तब तो यही अनुमान किया जा सकता है, कि उपर्युक्त श्लोक लिखते समय उसके मन में गीता का उक्त श्लोक अवश्य माया होगा । अर्थात् यह सिद्ध होता है, कि भास कवि के पहले भी महामारत और गीता का अस्तित्व था। पंडित त० गणपति शास्त्री ने यह निश्चित किया है, कि भास कवि का काल शक के दो-तीन सौ वर्ष पहले रहा होगा। परन्तु कुछ लोगों का यह मत है, कि वह शक के सौ-दो-सौ वर्ष बाद हुमा है। यदि इस दूसरे मत को सत्य मानें, तो भी उपर्युक प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है, कि भास से कम से कम सौ-दो-सौ वर्ष पहले अर्थात् शक-काल के प्रारम्भ में महामारत और गीता, दोनों ग्रंथ सर्वमान्य हो गये थे। (६) परन्तु प्राचीन ग्रंथकारों द्वारा गीता के श्लोक लिये जाने का और भी अधिक दृढ़ प्रमाण, परलोकवासी त्र्यंबक गुरुनाथ काळे ने गुरुकुल की वैदिक मेगज़ीन' नामक अंग्रेज़ी मासिक पुस्तक (पुस्तक ७, अंक ६७ पृष्ठ ५२८-५३२, मार्गशीर्ष और पौष, संवत् १९७०) में प्रकाशित किया है। इसके पहले पश्चिमी संस्कृत पंडितों का यह मत था, कि संस्कृत काव्य तथा पुराणों की अपेक्षा किन्हीं अधिक प्राचीन ग्रंथों में, उदाहरणार्थ सूत्रग्रंथों में भी, गीता का उल्लेख नहीं पाया जाता; और इसलिये यह कहना पड़ता है, कि सूत्र-काल के बाद अर्थात् अधिक से अधिक सन् ईसवी के पहले, दूसरी सदी में गीता बनी होगी। परन्तु परलोकवासी काळे ने प्रमाणों से सिद्ध कर दिया है, कि यह मत ठीक नहीं है। बौधायनगृहाशेष- सूत्र (२. २२. ६) में गीता का (६. २६) श्लोक, "तदाह भगवान् " कह कर स्पष्ट रूप से लिया गया है, जैसे-