भाग ५ वर्तमान गीता का माल । ५६९ पुराने मत में झगड़ा हो गया पुराने लोग अपने को थेरवाद' (वृद्धपंथ ) काइने लगे, और नवीन मत-वादी लोग अपने पन्थ का 'महायान' नाम रख करके पुराने पंथ को हीनयान' (अर्थात् हीन पंथ के) नाम से सम्बोधित करने लगे। अश्व- घोप महायान पंथ का था, और वह इस मत को मानता था कि यौद्ध यति लोग परोपकार के काम किया करें; अतएव सौंदरानंद (१८.४४) काव्य के अन्त में, जय नन्द मईतावस्था में पहुंच गया, तब उसे युद्ध ने जो उपदेश दिया है उसमें पहले यह कहा ई- अवासकार्योऽसि परां गतिं गतः न तेऽस्ति किंचित्करणीयमण्वपि । अर्थात् " तेरा कर्तव्य हो चुका, तुझे उत्तम गति मिल गई, जय तेरे लिये तिल भर भी कर्तव्य नहीं रहा" और आगे स्पष्ट रूप से यह उपदेश किया है, कि- विहाय तत्मादिए कार्यमात्मनः कुरु स्थिरात्मन्परकार्यमप्यथो । अर्थात् "प्रतएव भय तु अपना कार्य छोड़, बुद्धि को स्थिर करके परकार्य किया कर" (सौ. १८.५७) । बुद्ध के कर्मत्याग विषयक उपदेश में-कि जो प्राचीन धर्म- अंपों में पाया जाता है तथा इस उपदेश में (कि जिसे सौंदरानन्द कान्य में अश्व- घोप ने युद्ध के मुख से कहलाया है) अत्यन्त मिलता है। और अश्वघोप की इन दलीलों में तथा गीता के तीसरे अध्याय में जो युक्ति प्रयुक्तियाँ हैं, उनमें- "तस्य कार्य न विद्यते.........तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर " अर्थात तेरे लिये कुछ रह नहीं गया है, इसलिये जो कर्म प्राप्त हों उनको निष्काम पुद्धि से किया कर (गी. ३. १७, १६) केवल अर्थदृष्टि से ही किन्तु शब्दशः समानता है । अतएव इससे यह अनुमान होता है, कि ये दलील अश्वघोष को गीता ही से मिली हैं। इसका कारगा ऊपर यतला ही चुके हैं कि अश्वघोष से भी पहले महाभारत था । परन्तु इसे केवल अनुमान ही न समझिये । युद्धधर्मानुयायी तारा- नाय ने घुद्ध-धर्मविषयक इतिहास-सम्बन्धी जो ग्रंथ तिव्वती भाषा में लिखा है, उसमें लिखा है कि बौद्धों के पूर्वकालीन संन्यास-मार्ग में महायान पंथ ने जो कर्म- योगविषयक सुधार किया था, उसे 'ज्ञानी श्रीकृष्ण और गणेश' से महायान पंथ के मुख्य पुरस्कर्ता नागार्जुन के गुरु राहुलभद्र ने जाना था। इस ग्रंथ का अनुवाद रूसी भाषा से जर्मन भाषा में किया गया है-अंग्रेजी में अभी नहीं हुआ है। दाक्टर केन ने १८६६ ईसवी में घुद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिखी थी । यहाँ उसी से हमने यह भवतरण लिया है । साक्टर केर्न का भी यही मत है, कि यहाँ पर श्रीकृष्ण के नाम से भगवद्गीता ही का उल्लेख किया गया है। महायान पंथ के बौद्ध ग्रंथों में से, 'सद्धर्मपुंडरीक ' नामक ग्रंथ में भी भगवदगीता के श्लोकों के See Dr. Korn's Manual of Indian Buddhisni, Grundriss, III. 8. p. 122. महायान पंथ के 'अमितायुमुत्त ' नामक मुख्य ग्रंथ का अनुवाद चीनी भाषा में सन १४८ के लगभग किया गया था। गी. र. ७२
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