गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । - समान कुछ श्लोक हैं । परन्तु इन बातों का और अन्य बातों का विवेचन अगले भाग में किया जायगा । यहाँ पर केवल यही बतलाना है, कि बौद्ध ग्रंथकारों के ही मतानुसार मूल बौद्धधर्म के संन्यास-प्रधान होने पर भी, उसमें भक्ति प्रधान तथा कर्म प्रधान महायान पंथ की उत्पत्ति भगवद्गीता के कारण ही हुई है और अश्वघोप के काव्य से गीता की जो ऊपर समता वतलाई गई है उससे, इस अनुमान को और भी दृढ़ता प्राप्त हो जाती है। पश्चिमी पंडितों का निश्चय है कि महायान पंथ का पहला पुरस्कर्ता नागार्जुन शक के लगभग सौ डेढ़ सौ वर्ष पहले हुआ होगा, और यह तो स्पष्ट ही है कि इस पंथ का बीजारोपण अशोक के राजशासन के समय में हुआ होगा । घौद्ध ग्रंथों से, तथा स्वयं बौद्ध ग्रंथकारों के लिखे हुए उस धर्म के इतिहास. से, यह बात स्वतन्त्र रीति से सिद्ध हो जाती है, कि भगवद्गीता महायान वौद्ध पंथ के जन्म से पहले-अशोक से भी पहले-यानी सन् ईसवी से लगभग ३०० वर्ष पहले ही अस्तित्व में थी। इन सब प्रमाणों पर विचार करने से इसमें कुछ भी शंका नहीं रह जाती, कि र्वतमान भगवद्गीता शालिवाहन शक के लगभग पाँच सौ वर्ष पहले ही अस्तित्व में थी। ढाफ्टर भांडारकर, परलोकवासी तैलंग, रावबहादुर चिंतामणिराव वैय और परलोकवासी दीक्षित का मत भी इससे यहुत कुछ मिलता जुलता है और उसी को यहाँ ग्राह्य मानना चाहिये । हाँ, प्राफेसर गार्वे का मत भिन्न है । उन्हों ने उसके प्रमाण में गीता के चौथे अध्यायवाले सम्प्रदाय परम्परा के श्लोकों में से इस 'योगो नष्टः'-योग का नाश हो गया-वाक्य को ले कर योग शब्द का अर्थ पाताल योग' किया है । परन्तु हमने प्रमाण सहित पतला दिया है, कि वहाँ योग शब्द का अर्थ 'पाताल योग' नहीं-कर्मयोग' है। इसलिये प्रो० गावे का मत भ्रममूलक अतएव भग्राह्य है । यह बात निर्विवाद है, कि वर्तमान गीता का काल शालिवाहन शक के पाँच सौ वर्ष पहले की अपेक्षा प्रार कम नहीं माना जा सकता । पिछले भाग में यह बतला ही आये हैं, कि मूल गीता इससे भी कुछ सदियों से पहले की होनी चाहिये। भाग ६ - गीता और बौद्ध ग्रंथ । वर्तमान गीता का काल निश्चित करने के लिये ऊपर जिन बौद ग्रंथों के प्रमाण दिये गये हैं, उनका पूरा पूरा महत्व समझने लिये गीता और बौद्ध ग्रंथ या चौद्ध धर्म की साधारण समानता तथा विभिन्नता पर भी यहाँ विचार करना भाव- श्यक है। पहले कई बार बतला माये हैं, गीताधर्म की विशेषता यह है कि गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ प्रवृत्तिमागावलंबी रहता है । परन्तु इस विशेष गुण को थोड़ी देर के लिये अलग रख दें, और उक्त पुरुष के केवल मानसिक तथा नैतिक गुणों ही का विचार करें तो गीता में स्थितप्रज्ञ (गी. २. ५५, ७२), ब्रह्मनिष्ठ पुरुष (४.
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