पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१०

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भाग ६-गीता और बौद्ध ग्रंथ । १६-२३, ५. १८-२८) और भक्तियोगी पुरुष (१२. १३-१९) के जो लक्षण बत- साये हैं उनमें, और निर्वाणपद के अधिकारी अहतों के अर्थात पूर्णावस्था को पहुँचे हुए बौद्ध भिक्षुओं के जो लक्षण भिन्न भिन्न बौद्ध ग्रंथों में दिये हुए हैं उनमें, विलक्षण समता देख पड़ती है (धम्मपद श्लो. ३६०-४२३ और सुत्तनिपातों में से मुनिसुत्त तथा धम्मिकसुत्त देखो)। इतना ही नहीं, किन्तु इन वर्णनों के शब्दसाम्य से देख पड़ता है, कि स्थितप्रज्ञ एवं भक्तिमान् पुरुष के समान ही सच्चा भिक्षु भी 'शान्त,' 'निष्काम,' निर्मम,“निराशी' (निरिस्सित), समदुःखसुख,"निरारंभ,"अनिकेतन' या 'अनिवेशन ' अथवा ' समनिन्दा- स्तुति, और मान-अपमान तथा लाभ-अलाभ को समान माननेवाला' रहता है (धम्मपद ४०, ४१ और 83; सुत्तनि. मुनिसुत्त. १. ७ और १५, द्वयतानुपस्सनसुत्त २२-२३, और विनयपिटक चुल्लवग्ग ७. ४.७ देखो)। द्वयतानुपस्सनसुत्त के ४० वें श्लोक का यह विचार-कि ज्ञानी पुरुष के लिये जो वस्तु प्रकाशमान है वही अज्ञानी को अंधकार के सदृश है--गीता के (२. ६) " या निशा सर्वभू- तानां तस्यां जागति संयमी" इस श्लोकांतर्गत विचार के सदृश है और मुनि- सुत्त के १० वें श्लोक का यह वर्णन-भरोसनेय्यो न रोसेति" अर्थात् न तो स्वयं कष्ट पाता है और न दूसरों को कष्ट देता है-गीता के “ यस्मानोद्विजते लोको जोकानोद्विजते च यः" (गी. १२. १५) इस वर्णन केसमान है। इसी प्रकार सल्ल- सुत्त के ये विचार कि "जो कोई जन्म लेता है वह मरता है" और "प्राणियों का आदि तथा अंत अव्यक्त है इसलिये उसका शोक करना पृथा है" (सलसुत्त १ और ६. तथा गी. २. २७ और २८) कुछ शब्दों के हेरफेर से गीता के ही विचार हैं। गीता के दसवें अध्याय में अथवा अनुगीता (ममा. अश्व. ४३., ४४) में "ज्योतिमानों में सूर्य, नक्षत्रों में चन्द्र, और वेदमन्त्रों में गायत्री " आदि जो वर्णन है, वही सेलसुत्त के २१ वें और २२ वें श्लोकों में तथा महावग्ग (६.३५.८) में ज्यों का त्यों पाया जाता है। इसके सिवा शब्दसादृश्य के तथा अर्थसमता के छोटे मोटे उदाहरण, परलोकवासी तैलंग ने गीता के, अपने अंग्रेजी अनुवाद की टिप्पणियों में दे दिये हैं। तथापि प्रश्न होता है कि यह सशता हुई कैसे? ये विचार असल में बौद्धधर्म के हैं या वैदिकधर्म के ? और, इनसे अनुमान क्या निकलता है? किन्तु इन प्रश्नों को हल करने के लिये उस समय जो साधन उपलब्ध थे, वे अपूर्ण थे। यही कारण है जो उपर्युक्त चमत्कारिक शब्दसादृश्य और अर्थ-सादृश्य दिखला देने के सिवा परलोकवासी तैलंग ने इस विषय में और कोई विशेष बात नहीं लिखी परन्तु अव बौद्धधर्म की जो अधिक बातें उपलब्ध हो गई हैं उनसे, उक्त प्रश्न हल किये जा सकते हैं, इसलिये यहाँ पर बौद्धधर्म की उन बातों का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है। परलोकवासी तैलंग कृत गीता का अंग्रेज़ी अनुवाद जिस 'प्राच्यधर्मग्रन्थ- माला' में प्रकाशित हुना था, उसी में आगे चल कर, पश्चिमी विद्वानों ने बौद्धधर्म- अन्यों के अंग्रेजी अनुवाद प्रसिद्ध किये हैं। ये बातें प्रायः उन्हों से एकत्रित की गई