भाग ६-गीता और बौद्ध ग्रंथ । ५७३ यागादि' को निरुपयोगी तथा त्याज्य बतलाया है और इस बात का निरूपण किया है कि प्रामण जिसे 'बासहव्यताय' (प्रासहव्यत्यय-ब्रहासायुज्यता) कहते है वह अवस्था कैसे प्राप्त होती है। इससे यह बात स्पष्ट विदित होती है, कि बामणधर्म के कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाएट-अथवा गाईस्थ्यधर्म और संन्यास- धर्म, अर्थात् प्रवृत्ति और निवृत्ति-इन दोनों शाखाओं के पूर्णतया रूढ़ हो जाने पर उनमें सुधार करने के लिये बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ। सुधार के विषय में सामान्य नियम यह है कि उसमें कुछ पहले की बातें स्थिर रह जाती हैं और कुछ बदल जाती हैं। अतएव इस न्याय के अनुसार इस यात का विचार करना चाहिये कि बौदधर्म में वैदिकधर्म की किन किन बातों को स्थिर रख लिया है और किन किन को छोड़ दिया है। यह विचार दोनों-ईस्थ्यधर्म और संन्यास-की पृथक् पृथक दृष्टि से करना चाहिये। परन्तु यौद्धधर्म मूल में संन्यासमार्गीय अथवा केवल निवृत्ति प्रधान है, इसलिये पहले दोनों के संन्यासमार्ग का विचार करके अनन्तर दोनों के गाईस्थ्यधर्म के तारतम्य पर विचार किया जायगा। वैदिक संन्यास-धर्म पर दृष्टि डालने से देख पड़ता है, कि कर्ममय सृष्टि के सब व्यवहार तृपयामूलक अतएव दुःखमय हैं उससे अर्थात् जन्म-मरण के भव-चक्र से आत्मा का सर्वथा छुटकारा होने के लिये मन को निष्काम और विरक्त करना चाहिये तथा उसको दृश्य सृष्टि के मून में रहनेवाले आत्मस्वरूपी नित्य परया में स्थिर करके सांसारिक कर्मों का सर्वथा त्याग करना उचित है। इस प्रात्मनिष्ठ स्थिति ही में सदा निमग्न रहना संन्यास-धर्म का मुख्य तत्व है। दृश्य सृष्टि नाम-रूपात्मक तथा नाशवान् है और कर्म-विपाक के कारण ही उसका अखंडित च्यापार जारी है। कम्मना पत्तती लोको कम्मना वत्तती पजा (प्रजा)। कम्मनिबंधना सत्ता (सत्वानि ) रथस्साऽणीव यायतो ।। अर्थात् “कर्म ही से लोग और प्रजा जारी है। जिस प्रकार चलती हुई गाड़ी रस की कील से नियंत्रित रहती है उसी प्रकार प्राणिमान फर्म से बँधा हुआ है (सुत्तनि वासेठसुत्त.६४) । वैदिकधर्म के ज्ञानकाण्ड का उक्त तत्त्व, अथवा जन्म- मरण का चपर, या ब्रह्मा, इन्द्र, महेश्वर, ईश्वर, यम आदि अनेक देवता और उनके भिन्न भिन्न स्वर्ग-पाताल आदि लोकों का ब्राह्मणधर्म में वर्णित अस्तित्व, बुद्ध को मान्य था और इसी कारण नाम-रूप, कर्म-विपाक, अविद्या, उपादान और प्रकृति वगैरह वेदान्त या सांख्य शास्त्र के शब्द तथा ब्रह्मादि वैदिक देवताओं की कथाएँ मी (बुद्ध की श्रेष्ठता को स्थिर रख कर) कुछ हेरफेर से चौद्ध ग्रन्थों में पाई जाती है। यद्यपि युद्ध को वैदिकधर्म के कर्म-सृष्टि-विषयक ये सिद्धान्त मान्य थे कि, दृश्य सृष्टि नाशवान् और अनित्य है, एवं उसके व्यवहार कर्मविपाक के कारण जारी, तथापि वैदिकधर्म अर्थात् उपनिषत्कारों का यह सिद्धान्त उन्हें मान्य न था, कि नाम- रूपात्मक नाशवान् सृष्टि के मूल में नाम-रूप से व्यतिरिक्त आत्मस्वरूपी परब्रह्म के "
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१२
दिखावट