५७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट। समान एक नित्य और सर्वयापक वस्तु है। इन दोनों धर्मों में जो विशेष मित्रता है, वह यही है । गौतम बुद्ध ने यह बात स्पष्ट रूप से कह दी है, कि प्रात्मा या ब्रह्म यथार्य में कुछ नहीं है केवल भ्रम है। इसलिये प्रात्म-अनात्म के विचार में या ब्रह्मचिन्तन के पचड़े में पड़ कर किसी को अपना समय न खोना चाहिये (सवासवसुत्त. ६-१३ देखो)। दीध्वनिकायों के ब्रह्मजालसुत्तों से भी यही वात स्पष्ट होती है कि आत्मविषयक कोई भी कल्पना बुद्ध को मान्य न थी। इन सुत्तों में पहले कहा है कि आत्मा और ब्रह्म एक है या दो; फिर ऐसे ही भेद बतलाते हुए आत्मा की भिन्न भिन्न ६२ प्रकार की कल्पनाएँ वतला कर कहा है कि ये सभी मिथ्या दृष्टि' हैं और मिलिंदप्रभ (२.३.६ और २. ७. १५) में मी धौद्धधर्म के अनुसार नागसेन ने यूनानी मिलिन्द (मिनांदर) से साफ साफ़ कह दिया है कि "मात्मा तो कोई यथार्थ वस्तु नहीं है। यदि मान लें कि भात्मा और उसी प्रकार ब्रह्म भी दोनों भ्रम ही हैं, यथार्थ नहीं हैं, तो वस्तुतः धर्म की नींव ही गिर जाती है। क्योंकि, फिर तो सभी भनित्य वस्तुए बच रहती हैं, और नित्यसुख या उसका अनुभव करनेवाला कोई भी नहीं रह जाता। यही कारण है जो श्रीशंकराचार्य ने तर्क दृष्टि से इस मत को अग्राह्य निश्चित किया है। परन्तु अभी हमें केवल यही देखना है कि असली बुद्धधर्म क्या है, इसलिये इस वाद को यहीं छोड़ कर देखेंगे कि बुद्ध ने अपने धर्म की क्या उपपत्ति बतलाई है । यद्यपि बुद्ध को आत्मा का अस्तित्व मान्य न था, तथापि इन दो बातों से वे पूर्णतया सहमत थे कि (१) कर्म-विपाक के कारण नाम-रूपा- त्मक देह को (आत्मा को नहीं) नाशवान जगत के प्रपञ्च में चार बार जन्म लेना पड़ता है, और (२) पुनर्जन्म का यह चक्कर या सारा संसार ही दुःखमय है। इससे छुटकारा पा कर स्थिर शान्ति या सुख को प्राप्त कर लेना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार इन दो बातों-अर्थात सांसारिक दुःख के अस्तित्व और उसके निवारण करने की आवश्यकता को मान लेने से वैदिकधर्म का यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है, कि दुःख-निवारण करके भयंत सुख प्राप्त कर लेने का मार्ग कौन सा है। और उसका कुछ न कुछ ठीक ठीक उत्तर देना आवश्यक हो जाता है। उपनिपत्कारों ने कहा है, कि यज्ञ-याग आदि कर्मों के द्वारा संसार-चन से छुटकारा हो नहीं सकता और बुद्ध ने इससे भी कहीं आगे बढ़ कर इन सब कमों को हिंसात्मक प्रतएव सर्वथा त्याज्य और निषिद्ध बतलाया है। इसी प्रकार यदि स्वयं ब्रह्म' ही को एक बड़ा भारी भ्रम मान, तो दुःख-निवारणार्थ जो ब्रह्मज्ञान-मार्ग है वह भी प्रांतिकारक तथा असम्भव निणीत होता है । फिर दुःखमय भवचक्र से छूटने का मार्ग कौन सा है? बुद्ध ने इसका यह उत्तर दिया है, कि किसी रोग को दूर करने के लिये उस रोग का मूल कारण हूँढ़ कर उसी को हटाने का प्रयत्न जिस प्रकार चतुर ब्रह्मजालसुत्त का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं है, परन्तु उसका संक्षिप्त विवेचन हिसडे. विड्स ने. S.B.E. Vol. XxVI. Intro. pp.xii. xxV में किया है। . !
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१३
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