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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१७

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५७८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । तुम्हें ब्रह्म की प्राप्ति होगी ही कैसे? " और यह भी प्रसिद्ध है कि स्वयं बुद्ध ने युवावस्था में ही अपनी स्त्री, अपने पुत्र तथा राजपाट को त्याग दिया था, एवं भिक्षुधर्म स्वीकार कर लेने पर छः वर्ष के पीछे उन्हेंबुद्धावस्था प्राप्त हुई थी।बुद्ध के समकालीन, परन्तु उनसे पहले ही समाधिस्य हो जानेबाने, महावीर नामक अंतिम जैन तीर्थकर का भी ऐसा ही उपदेश है। परन्तु वह युद्ध के समान अनात्मवादी नहीं था और इन दोनों धर्मो में महत्व का भेद यह है कि वस्त्रमावरण भादि ऐहिक सुखों का त्याग और अहिंसा व्रत प्रभृति धर्मों का पालन बौद्ध भिक्षुओं की अपेक्षा जैन यति अधिक दृढ़ता से किया करते थे; एवं अय भी करते रहते हैं। खाने ही की नियत से जो प्राणी न मारे गये हों, उनके पवत्त (सं. प्रवृत्त) अर्थात् 'तैयार किये हुए मांस (हाथी, सिंह, आदि कुछ प्राणियों को छोड़ कर) को युद्ध स्वयं खाया करते थे और 'पवत्त ' मांस तथा मछलियाँ खाने की आज्ञा चौद्ध मितुमों को भी दी गई है। एवं विना वस्त्रों के नन-धड़ा घूमना बौद्धार्मत- धर्म के नियमानुसार अपराध ई (महावग्ग ६.३१. १४ और ... १)। सारांश, यद्यपि बुद्ध का निश्चित उपदेश था कि अनात्मवादी मितु बनो, तथापि कायक्लेशमय स्प तप से बुद्ध सहमत नहीं थे (महावगा ५.१.१६ और गी.६. १६); बौद्ध भिक्षुओं के विहारों अर्थात् उनके रहने के मठों की सारी व्यवस्था भी ऐसी रखी जाती थी कि जिससे उनको कोई विशेष शारीरिक कष्ट न सहनां पड़े और प्राणायाम भादि योगाभ्यास सरलतापूर्वक हो सके। तथापि बौद्धधर्म में यह तत्त्व पूर्णतया स्थिर है, कि मईतावस्था या निर्वाण-सुख की प्राप्ति के लिये गृहस्थाश्रम को त्यागना ही चाहिये, इसलिये यह कहने में कोई प्रत्यवाय नहीं कि यौद्ध धर्म संन्यास प्रधान धर्म है। यद्यपि बुद्ध का निश्चित मत था कि ब्रह्मज्ञान तथा आत्म-अनात्म-विचार श्रम का एक बड़ा सा जाल है, तथापि इल दृश्य कारण के लिये अर्थात् दुःखमय संसारचक्र से छूट कर निरन्तर शांति तथा सुख प्राप्त करने के लिये, उपनिषदों में वर्णित संन्यासमार्गवालों के इसी साधन को उन्होंने मान लिया था, कि वैराग्य से मन को निर्विषय रखना चाहिये । और जब यह सिद्ध हो गया, कि चातुर्वर्य-भेद तथा हिंसात्मक यज्ञ-याग को छोड़ कर बौद्धधर्म में वैदिक गाईस्थ्य-धर्म के नीति- नियम ही कुछ हेरफेर करके ले लिये गये हैं, तब यदि उपनिषद् तथा मनुस्मृति आदि ग्रंथों में वैदिक संन्यासियों के जो वर्णन है वे वर्णन, एवं वौद्ध मिनुओं या अर्हता के वर्णन अथवा अहिंसा आदि नीतिधर्म, दोनों धर्मों में एक ही से और कई स्थानों पर शब्दशः एक ही से-देख पड़ें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, ये सब पाते मूल वैदिक-धर्म ही की है। परन्तु बौद्धों ने केवल इतनी ही वावे वैदिकधर्म से नहीं ली है, प्रत्युत बौद्धधर्म के दशरथजातक के समान जातकग्रंथ भी प्राचीन वैदिक पुराण-इतिहास की कथाओं के, बुद्धधर्म के अनुकूल तैयार किये हुए, रूपान्तर है। न केवल बौद्धों ने ही, किन्तु जैनों ने भी अपने अभिनवपुराणों में