पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१८

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भाग ६- गीता और बौद्धमन्य। वैदिक कथाओं के ऐसे ही रूपान्तर कर लिये हैं। सेल" साहब ने तो यह लिखा है कि ईसा के अनन्तर प्रचलित हुए मुहम्मदी धर्म में ईसा के एक चरित्र का इसी प्रकार विपर्यास कर लिया गया है। वर्तमान समय की खोज से यह सिद्ध हो चुका है, कि पुरानी बाइबल में सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय तथा नूह आदि की जो कथाएँ । वे सब प्राचीन खाल्दी जाति की धर्म-कथामों के रूपान्तर हैं, कि जिनका वर्णन यहूदी लोगों का किया हुआ है। उपनिपद, प्राचीन धर्मसूत्र, तया मनुस्मृति में वर्णित कथाएँ अथवा विचार जव बौद्ध प्रथों में इस प्रकार कई बार तो बिलकुल शब्दश:-लिये गये हैं, तब यह अनुमान सहज ही हो जाता है, कि ये असल में महाभारत के ही हैं । बौद-मन्थपणेताओं ने इन्हें वहीं से उद्धृत कर लिया होगा। वैदिक धर्मग्रंथों के जो भाव और श्लोक धौद्ध ग्रंथों में पाये जाते हैं, उनके कुछ उदाहरण ये हैं:-" जय से बैर की वृद्धि होती है और बैर से बैर शांत नहीं होता" (म. भा. उद्यो. ७१.५६ भौर ६३), "दूसरे के क्रोध को शांति से जीतना चाहिये "मादि विदुरनीति (म. मा. अयो. ३८. ७३), तथा जनक का यह वचन कि " यदि मेरी एक भुजा में चन्दन लगाया जाय और दूसरी काट कर अलग कर दी जाय तो भी मुझे दोनों बातें समान ही हैं" (म. भा. शां.३२०.३६), इनके अतिरिक्त महाभारत के और भी बहुत से लोक बौद्ध ग्रंथों में शब्दशः पाये जाते हैं (धम्मपद ५ और २२३ तथा मिनिन्दमा ७.३.५)। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा मनुस्मृति भादि वैदिक ग्रंथ घुद्ध की अपेक्षा प्राचीन हैं। इसलिये उनके जो विचार तथा श्लोक बौद्ध ग्रंथों में पाये जाते है, उनके विषय में विश्वास-पूर्वक कहा जा सकता है कि उन्हें बौद्ध ग्रंथकारों ने उपयुक्त वैदिक ग्रंथों ही से लिया है। किन्तु यह बात महाभारत के विषय में नहीं कही जा सकती। महा- भारत में ही बौद्ध दागोबाओं का जो उल्लेख है उससे, स्पष्ट होता है कि महाभारत का अन्तिम संस्करण बुद्ध के बाद रचा गया है। अतएव केवल श्लोकों के साश्य के भाधार पर यह निश्चय नहीं किया जा सकता, कि वर्तमान महाभारत बौद्ध ग्रंथों के पहले ही का है, और गीता तो महाभारत का एक भाग है इसलिये वही न्याय गीता को भी उपयुक्त हो सकेगा। इसके सिवा, यह पहले ही कहा जा चुका है, कि गीता ही में ब्रह्मसूत्रों का उल्लेख है और ब्रह्मसूत्रों में है बौद्ध धर्म का खंडन । प्रत. एवं स्थितप्रज्ञ के वर्णन प्रकृति की (वैदिक और बौद्ध) दोनों की समता को छोड़े देते हैं और यहाँ इस बात का विचार करते हैं कि उक्त शंका को दूर करने एवं गीता को निर्विवाद रूप से बौद्ध अन्पों से पुरानी सिद्ध करने के लिये बौद्ध ग्रंथों में कोई अन्य साधन मिलता है या नहीं। उपर कह आय हैं, कि बौद्धधर्म का मूल स्वरूप शुद्ध निरात्मवादी और + See Sale's Kora 12, " To the Reader " (Proface ), pisand the Preliminary Discourse, Sec. IV. p. 58 ( Chandos Classics Edition ).