पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६३६

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उपोद्धात । ज्ञान से और श्रदा से, पर इसमें भी विशेषतः भक्ति के सुजभ राजमार्ग 'से, जितनी हो सके उतनी समबुदि करके लोकसंग्रह के निमित्त स्वधर्मानुसार अपने अपने कर्म निष्काम बुदि से मरण पर्यन्त करते रहना ही प्रत्येक मनुम्ब का परम कर्तव्य है। इसी में उसका सांसारिक और पारलौकिक परम कल्याण है तथा उसे मोच की प्राप्ति के लिये कर्म छोड़ बैठने की अथवा और कोई भी दूसरा अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं है। समस्त गीताशास्त्र का यही फलिताई है, जो गीतारहस्य में प्रकरणशः विस्तारपूर्वक प्रतिपादित हो चुका है । इसी प्रकार चौदहवें प्रकरण में यह भी दिखना भाये हैं कि, उल्लिखित उद्देश से गीता के भठारही अध्यायों का मेल कैसा अच्छा और सरन मिल जाता है एवं इस कर्म- योग-प्रधान गीताधर्म में अन्यान्य मोत-साधनों के कौन कौन से भाग किस प्रकार माये हैं। इतना कर चुकने पर, वस्तुतः इससे अधिक काम नहीं रह जाता कि गीता के श्लोकों का क्रमशः हमारे मतानुसार भाषा में सरल अर्थ पतला दिया जावे। किन्तु गीतारहस्य के सामान्य विवेचन में यह बतलाते न बनता था कि गीता के प्रत्येक भध्याय के विषय का विभाग कैसे हुआ है। अथवा टीकाकारों ने अपने सम्प्रदाय की सिद्धि के लिये कुछ विशेष श्लोकों के पदों की किस प्रकार खींचा-तानी की है। अतः इन दोनों बातों का विचार करने, और जहाँ का तही पूर्वापर सन्दर्भ दिखला देने के लिये भी, अनुवाद के साथ साथ आलोचना के ढंग पर कुछ टिप्प. म्णयों के देने की आवश्यकता हुई । फिर भी जिन विषयों का गीतारहस्य में विस्तृत वर्णन हो चुका है, उनका केवल दिग्दर्शन करा दिया है, और गीतारहस्य के जिस प्रकरण में उस विषय का विचार किया गया है, उसका सिर्फ हवाला दे दिया है। टिप्पणियाँ मूल ग्रन्थ से अलग पहचान ली जा सकें, इसके लिये ये[ ] चौकोने बैकिटों के भीतर रखी गई है और मार्जिन में टूटी हुई खड़ी रेखाएँ भी लगा दी गई हैं। श्लोकों का अनुवाद, जहाँ तक बन पड़ा है, शब्दशः किया गया है और कितने ही स्थलों पर तो मूल के ही शब्द रख दिये गये हैं एवं " अर्थात, यानी" से जोड़ कर उनका अर्थ खोल दिया है और छोटी-मोटी टिप्पानियों का काम अनुवाद से ही निकाल लिया गया है । इतना करने पर भी, संस्कृत की और भाषा की प्रणाली मिन भिन्न होती है इस कारण, मूल संस्कृत श्लोक का पूर्ण वर्ष भी भाषा में व्यक करने के लिये कुछ अधिक शन्दों का प्रयोग अवश्य करना पड़ता है, और अनेक स्थलों पर मूल के शब्द को अनुवाद में प्रमाणार्थ लेना पड़ता है। इन शन्दों पर