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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६३७

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गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । ध्यान जमने के लिये () ऐले कोष्टक में ये शब्द रखे गये हैं। संकृत प्रन्यों में श्लोक का नम्वर श्लोक के अन्त में रहता है। परनु अनुवाद में हमने यह नम्बर पहने ही, आम्न में रखा है। अंतः किसी श्लोक का अनुवाद देखना हो तो, अनुवाद में उस नम्बर के आगे का वाक्य पड़ना चाहिये । अनुवाद की रचना प्रायः ऐसी की गई है कि टिप्पणी छोड़ कर निरा अनुवाद ही पढ़ते जाय तो अर्थ में कोई ष्यतिकम न पड़े। इसी प्रकार जहाँ मूल में एक ही वाक्य, एक से अधिक लोकों में पूरा हुआ है, वहाँ उतने ही लोगों के अनुवाद में वह अयं पूर्ण किया गया है। श्रतएव कुछ लेका का अनुवाद मिला कर ही पढ़ना चाहिये । ऐसे श्लक नहा नहा है, वहीं वहीं लोक के अनुवाद में पूर्ण-विराम-चिन्ह (1) खड़ी पाई नहीं लगाई गई है। फिर भी यह स्मरणं रहे कि, अनुवाद अन्त में अनुवाद ही है। हमने अपने अनुवाद में गीता के सरल, बुले और प्रधान अर्थ को ले शंने का प्रयत्न किया है सही परन्तु संस्कृत शब्दों में और विशेषतः भगवान् की प्रेमयुक, रसीली, व्यापक और प्रतिक्षण में नई रुचि दैनवानी वाणी में लक्षणा से भनेक यंन्यार्य उत्पत करने का नो सामध्यं है, इसे जरा भी न घटा-बड़ा कर दूसरे शब्दों में ज्यों का त्यों मलका देना असम्भव है। मर्यात् संस्कृत जाननेवाला पुरुष अनेक अवसरों पर सक्षणा से गीता के श्लोकों कासारपयोग करेगा, वैसा गीतां का निरा मनुवाद पढ़नेवाले पुरुष नहीं कर सकेंगे अधिकश्या कह सम्भब है कि वे गोता नी खा जाय । अतएव सब लोगों से हमारी आग्रहपूर्वकं विनती है कि गीतामन्य का संस्कृत में ही अवश्य अध्ययन कीजिये और अनुवाद के साथ ही साथ मूल लोक रखने का प्रयोजन भी यही है । गीता के प्रत्येक अध्याय के विषय का सुविधा से ज्ञान होने के लिये इन सब विषयों की-अध्यायों के क्रम से, प्रत्येक श्लोक की- अनुक्रमणिका भी अलग है ही है। यह अनुमणिका वेदान्तसूत्रों की अधिकरण माला के द्वैग की है। प्रत्येक श्लोक को पृथक् पृयक. न पड़ कर, अनुक्रमणिका के इस सिलसिले से गीता के श्लोक एकत्र पड़ने पर, गीता के तात्पर्य के सम्बन्ध में जो अन फैला हुडा है वह कई अंशों में दूर हो सकता है। क्योंकि साम्प्रदायिक टीकाकारों ने गीता के श्लोकों की खींचातानी कर अपने सम्प्रदाय की सिद्धि के लिये कुछ श्लोकों के जो निराले अयं कर वाले हैं, वे प्रायः इस पूर्वापर सन्दर्भ की और दुर्लक्ष्य करके ही किये गये हैं । उदाहरणार्थ, गीता ३. १६.३ और ८. देखिये । इस दृष्टि से देखें तो यह कहने में कोई हानि नहीं कि, गीता का यह अनुवाद और गीतारहस्य, दोनों परस्पर एक दूसरे की पूर्ति करते हैं। और जिले हमारा वच्च्य पूर्णतया समम लेना हो, से इन दोनों ही भागों का भव- खोकन करना चाहिये। नगवहींना अन्य को कराटस्य कर लेने की रीति प्रचलित है. इसलिये इसमें महत्व के पाउनेद कहीं भी नहीं पाये जाते हैं। मिनी यह यतलाना आवश्यक है कि वर्तमानकाल में गीता पर उपलब्ध होनेवाले भाष्यों में नोलबले प्राचीन मान्य सी शानरमायके मूल पाठ को हमने प्रमाण नाना है।