पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-शास्त्र । अत्याज्य है। सारे कर्म स्वधर्म के अनुसार निस्सन्न बुद्धि के द्वारा करने से ही नकार्य- सिद्धि मिलती है।५०-५६ इस बात का निरूपण कि सारे कर्म करते रहने से भी सिद्धि किस प्रकार मिलती है । ५७, ५८ इसी मार्ग को स्वीकार करने के विषय में अर्जुन को टपदेश । ५६-६३ प्रकृति-धर्म के सामने प्रकार की एक नहीं चलती। ईन्चर की ही शरण में जाना चाहिये । अर्जुन को यह उपदंश कि इस गुह्य को समझ कर फिर जो दिल में आवे, सो कर । ६४-६६ भगवान् का यह अन्तिम आश्वासन कि सब धर्म छोड़ कर " मेरी शरण में था, " सब पापों से मैं तुझे मुक्त कर दूंगा।"६७-६८ कर्मयोगमार्ग की परम्परा को आगे प्रचलित रखने का श्रेय । ७०, ७१ उसका फल-माहात्म्य । ७२, ७३ कतन्य मोह नष्ट हो कर, अर्जुन की युद्ध करने के लिये तैयारी 1 ७४ -- धृतराष्ट्र को यह कथा सुना चूकने पर सञ्जयकृत उपसंहार। पृ.२१-५२ ....