श्रीमद्भगवद्गीता। प्रथमोऽध्यायः। धृतराष्ट्र उवाच । धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ १॥ पहला अध्याय। भारतीय युद्ध के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस गीता का उपदेश किया है, उसका लोगों में प्रचार कैसे हुआ, इसकी परम्परा वर्तमान महाभारत प्रन्थ में ही इस प्रकार दी गई है। युद्ध प्रारम्भ होने से प्रथम व्यासजी ने धृतराष्ट्र से जा कर कहा कि “ यदि तुम्हारी इच्छा युद्ध देखने की हो तो मैं तुम्हें दृष्टि देता हूँ।" इस पर एतराष्ट्र ने कहा कि मैं अपने कुल का क्षय अपनी दृष्टि से नहीं देखना चाहता । तब एक ही स्थान पर बैठे बैठे, सब बातों का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाने के लिये समय नामक सूत को व्यासजी ने दिव्य-दृष्टि दे दी । इस समय के द्वारा युद्ध के अविकल वृत्तान्त धृतराष्ट्र को अवगत करा देने का प्रवन्ध करके व्यासजी चले गये (मभा. भीम. २)। जब आगे युद्ध में भीष्म प्राप्त हुए, और उक्त प्रबन्ध के अनुसार समाचार सुनाने के लिये पहले सञ्जय धृतराष्ट्र के पास गया, तब भीष्म के बारे में शोक करते हुए धृतराष्ट्र ने सजय को आज्ञा दी कि युद्ध की सारी बातों का वर्णन करो । तदनुसार सञ्जय ने पहले दोनों दलों की सेनाओं का वर्णन किया; और, फिर एतराष्ट्र के पूछने पर गीता बतलाना प्रारम्भ किया है। आगे चल कर यही सव वाती व्यासजी ने अपने शिष्यों को, उन शिष्यों में से वैशम्पायन ने जनमे- जय को, और अन्त में सोती ने शौनक को सुनाई है। महाभारत की सभी छपी हुई पोथियों में भीष्मपर्व के २५ वें अध्याय से ४२ वै अध्याय तक यही गीता कही गई है। इस परम्परा के अनुसार-] टतराष्ट्र ने पूछा-(१) हे सञ्जय! कुरुक्षेत्र की पुण्यभूमि में एकत्रित मेरे और पाण्डु के युद्धेच्छुक पुत्रों ने क्या किया? हस्तिनापुर के चहुँ ओर का मैदान कुरुक्षेत्र है । वर्तमान दिल्ली शहर इसी मैदान पर बसा हुआ है । कौरव-पाण्डवों का पूर्वज, कुरु नाम का राजा इस मैदान को इल से बड़े कष्टपूर्वक जोता करता था; अतएव इसको क्षेत्र (या खेत) कहते हैं। जब इन्द्र ने कुरु को यह वरदान दिया, कि इस .
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