सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥१॥ प्रोत्साहित करने के लिये ही हर्षपूर्वक यह वर्णन किया गया है । इन सब बातों का विचार करने से, इस स्थान पर, अपर्याप्त' शब्द का “ अमर्यादित, अपार या अगणित" के सिवा और कोई अर्थ ही नहीं हो सकता । पर्याप्त' शब्द का धात्वर्थ "चहुँ और (परि-)वेष्टन करने योग्य (आप प्रापणे)" है। परन्तु, " अमुक काम के लिये पर्याप्त " या "अमुक मनुष्य के लिये पर्याप्त" इस प्रकार पर्याप्त शब्द के पीछे, चतुर्थी अर्थ के दूसरे शब्द जोड़ कर प्रयोग करने से पर्याप्त शब्द का यह अर्थ हो जाता है- उस काम के लिये या मनुष्य के लिये भरपूर अथवा समर्थ । " और, यदि पर्याप्त' के पीछे कोई दूसरा शब्द न रखा जावे, तो केवल 'पर्याप्स' शब्द का अर्थ होता है “ भरपूर, परिमित या जिसकी गिनती की जा सकती है। प्रस्तुत श्लोक में पर्याप्त शब्द के पीछे दूसरा कोई शब्द नहीं है, इसलिये यहाँ पर उसका उपर्युक्त दूसरा अर्थ (परि. मित या मर्यादित) ही विवक्षित है और, महाभारत के अतिरिक्त अन्यत्र भी ऐसे प्रयोग किये जाने के उदाहरण ब्रह्मानन्दगिरि कृत टीका में दिये गये हैं। कुछ लोगों ने यह उपपत्ति वतलाई है, कि दुर्योधन भय से अपनी सेना को अपर्याप्त ' अर्थात् 'वस नहीं' कहता है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि दुर्योधन केडरजाने का वर्णन कहीं भी नहीं मिलता; किन्तु इसके विपरीत यह वर्णन पाया जाता है, कि दुर्योधन की वड़ी भारी सेना को देख कर पाण्डवों ने वन नामक न्यूह रचा और कौरवों की अपार सेना देख युधिष्ठिर को बहुत खेद हुआ था (ममा. मीप्म. १६.५और २१.१)। पाण्डवों की सेना का सेनापति, पृष्टद्युम्न था, परन्तु " भीम रक्षा कर रहा है। कहने का कारण यह है कि पहले दिन पाण्डवों ने जो वन नाम का न्यूह रचा था उसकी रक्षा के लिये न्यूह के अग्रभाग में भीम ही नियुक्त किया गया था, अतएव सेनारक्षक की दृष्टि से दुर्योधन को वही सामने दिखाई दे रहा था । (ममा. भीषम १६. ४-११,३३, 1३४); और, इसी अर्थ में इन दोनों सेनाओं के विषय में, महाभारत में गीता के पहने के अध्यायों में “ भीमनेत्र" और " भीष्मनेन" कहा गया है (देखोममा. मी. २०.१)] (११) (तो अब) नियुक्ति के अनुसार सब अयनों में अर्थात् सेना के भिन्न मित्र प्रवेश द्वारों में रह कर तुम सब को मिल करके भीम की ही समी ओर से रवा करनी चाहिये। [सेनापति भीम स्वयं पराक्रमी और किसी से भी हार जानेवाले न थे। "समी और से सब को उनकी रक्षा करनी चाहिये,' इस कथन का कारण दुर्योधन ने दूसरे स्थल पर (ममा. भी. १५. १५-२०६६६. ४०, ४१) यह बात