पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६५२

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गीता अनुवाद और टिप्पणी-१ अध्याय । भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ २५ तत्रापश्यस्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्मातन्पुत्रान्पौत्रान्सीस्तथा ॥ २६ ॥ श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि । तान्समीक्ष्य स कौंतेयः सर्वान्बंधूनवस्थितान् ॥ २७॥ कोप पर क्षीरस्वामी की जो टीका है, उसमें लिखा है, कि हृषीक (अर्थात इन्द्रियाँ) शब्द हप्-मानन्द देना, इस धातु से बना है, इन्द्रियाँ मनुष्य को आनन्द देती हैं इसलिये उन्हें हपीक कहते हैं । तथापि, यह शक होती है, कि हृषीकेश और गुसाकेश का जो अर्ष अपर दिया गया है, वह ठीक है या नहीं। क्योंकि हपीक (अर्थात् इन्द्रियाँ) और गुढाका (अर्थात् निद्रा या आलस्य) ये शब्द प्रचलित नहीं हैं। हृषीकेश और गुडाकेश इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति दूसरी शति से भी लग सकती है । हपीक+ईश और गुडाका+ईश के बदले हृषी+ केश और गुदा+केश ऐसा भी पदच्छेद किया जा सकता है। और फिर यह अर्थ हो सकता है, कि हृषी अर्थात् सर्प से खड़े किये हुए या प्रशस्त जिसके केश (बाल) हैं वह श्रीकृष्ण, और गुडा अर्थात् गूढ़ या धने जिसके केश , वह अर्जुन । भारत के टीकाकार नीलकण्ठ ने गुडाकेश शब्द का यह अर्थ, गी. १०. २०. पर अपनी टीका में, विकल्प से सूचित किया है। और सूत के बाप का जो रोमहर्पण नाम है, उससे हृषीकेश शब्द की उल्लिखित दूसरी व्युत्पत्ति को मी असम्भवनीय नहीं कह सकते । महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत नारायणीयो- पाख्यान में विष्णु के मुख्य मुख्य नामों की निरुक्ति देते हुए यह अर्थ किया है कि हृषी अर्थात् आनन्ददायक और केश अर्थात् किरण, और कहा है कि सूर्य- चन्द्र-रूपं अपनी विभूतियों की किरणों से समस्त जगत को हर्षित करता है, इसलिये उसे हपीकेश कहते हैं (शान्ति. ३४१.४७ और ३४२.६४, ६५ देखो उद्यो. Hee); और, पहले श्लोकों में कहा गया है, कि इसी प्रकार केशव शब्द भी केश अर्थात् किरण शब्द ले बना है (शां. ३४१. १७) । इनमें से कोई भी अर्थ क्यों न लें पर श्रीकृष्ण और अर्जुन के ये नाम रखे जाने के, सभी अंशों में, योग्य कारण बतलाये जा नहीं सकते । लेकिन यह दोष नैरुक्तिकों का नहीं है। जो न्यकिवाचक या विशेष नाम अत्यन्त रूढ़ हो गये हैं, उनकी निरुक्ति बतलाने में इस प्रकार की अड़चनों का आना या मतभेद हो जाना बिलकुल सहज बात है। (२५) भीष्म, द्रोण तथा सव राजाओं के सामने (वे) बोले, कि " अर्जुन! यहाँ एकत्रित हुए इन कौरवों को देखो"। (२६) तब अर्जुन को दिखाई दिया, कि वहाँ पर इकठे हुए सब (अपने ही) बड़े बूढ़े, प्राजा, आचार्य, मामा, भाई, बेटे, नाती, मित्र, (२७) ससुर और स्नेही दोनों ही सेनाओं में हैं। (और इस प्रकार) यह