गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ १८ ॥ स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९ ॥ IS अध व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः। प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यस्य पांडवः ॥ २०॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते। अर्जुन उवाच । सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥२१॥ यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥ योत्स्यमानानवक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुई युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥२३॥ संजय उवाच । एवमुको हृपकिशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥ (८) द्रुपद और द्रौपदी के (पाँचों बेटे, तथा महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु), इन सब ने, हे राजा (एतराष्ट्र)! चारों ओर अपने अपने अलग अलग शंख बजाये । (e) आकाश और पृथिवी को दहला देनेवाली टस तुमुन आवाज़ ने कौरवों का कलेजा फाड़ डाला। (२०) अनन्तर कौरवों को व्यवस्था से खड़े देख, परस्पर एक दूसरे पर शत्र. प्रहार होने का समय आने पर, कपिध्वज पाण्डव अर्थात् अर्जुन, (२१) राजा एतराष्ट्र ! श्रीकृष्ण से ये शब्द चौला,-अर्जुन ने कहा-हे अच्युत ! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चल कर खड़ा करो, (२२) इतने में युद्ध की इच्छा से तैयार हुए इन लोगों को मैं अवलोकन करता हूँ और, मुझे इस रणसंग्राम में किनके साथ लड़ना है, एवं (२३) युद्ध में दुर्बुद्धि दुर्योधन का कल्याण करने की इच्छा से यहाँ जो बड़नेवाले जमा हुए हैं, उन्हें मैं देख लूँ। संजय बोला-(२४) हे धृतराष्ट्र ! गुम- केश अर्थात् आलस्य को जीतनेवाले अर्जुन के इस प्रकार कहने पर हृषीकेश अर्थात इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने (अंर्जुन के) उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य मांग में लाकर खड़ा कर दिया और- । [हृषीकेश और गुडाकेश शब्दों के जो अर्थ जपर दिये गये हैं, वे टीकाकारों के मतानुसार है । नारदपञ्चरात्र में भी 'हृषीकेश' की यह निरुक्ति है कि हृषीक-इन्द्रियों और उनका ईश-स्वामी (ना. पञ्च. ५. ८. ३७); और, अमर-
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