गीता, अनुवाद और टिप्पणी १ अध्याय । पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ।। तस्माना वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबांधवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। ३७ ॥ $$ यद्यप्यते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृतंदोष मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥ कथं न शेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोपं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९ ॥ पृथ्वी की बात है क्या चीज़ ? (३६) दे जनार्दन ! इन कौरवों को मार कर हमारा कौन सा प्रिय होगा? यद्यपि ये आततायी हैं, तो भी इनको मारने से हमें पाप ही मगंगा । (२७) इसनिये हमें अपने ही बान्धव कौरवों को मारना उचित नहीं है पयोंकि, हे माधव ! स्वजनों को मार कर हम सुखी क्योंकर होंगे? i [अग्निदो गरदश्चैव शसपाणिर्धनापहः । क्षेसदाराइरश्चैव पडेते आतता. यिनः ।। (वसिष्टस्मृ. ३. १६) अयात् घर जलाने के लिये प्राया हुमा, विप देनेवाला, हाथ में हथियार ले कर मारने के लिये आयर्या हुआ, धन लूट कर ले जानेवाला और स्त्री या खेत का हरणकर्ता -ये छः साततायी हैं। मनु ने भी कहा है, कि इन दुष्टों को वेधड़क जान से मार डाले, इसमें कोई पातक नहीं है (मनु.८.३५०, ३५१)1] (३८) लोभ से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है, उन्हें कुल के क्षय से होनेवाला दोप और मिसद्रोह का पातक यद्यपि दिखाई नहीं देता, (३९) तथापि हे जनार्दन! कुलक्षय का दोप हमें स्पष्ट देख पड़ रहा है, अतः इस पाप से पराङ्मुख होने की यात हमारे मन में आये बिना कैसे रहेगी? [प्रथम से ही यह प्रत्यक्ष हो जाने पर कि युद्ध में गुरुवध, सुहृद्ध और कुलक्षय होगा, लड़ाई-सम्बन्धी अपने कर्तव्य के विषय में अर्जुन को जो व्यामोह हुआ, उसका क्या चीज है? गीता में जो आगे प्रतिपादन है, उससे इसका क्या सम्बन्ध है ? और उस दृष्टि से प्रथमाध्याय का कौन सा महत्व है ? इन सब प्रश्नों का विचार गीतारहस्य के पहले और फिर चौदहवें प्रकरण में हमने किया है, उसे देखो। इस स्थान पर ऐसी साधारण युक्तियों का उल्लेख किया गया है जैसे, लोभ से पुद्धि नष्ट हो जाने के कारण दुष्टों को अपनी दुष्टता जान न पड़ती हो, तो चतुर पुरुषों को दुष्टों के फन्द में पड़ कर दुष्ट न हो जाना चाहिय-न पापे प्रतिपापः स्यात्-उन्हें चुप रहना चाहिये । इन साधारण युक्तियों का ऐसे प्रसग पर कहाँ तक उपयोग किया जा सकता है, अथवा करना चाहिये ?-यह भी अपर के समान ही एक महत्व का प्रश्न है, और इसका गीता के अनुसार जो उत्तर है, उसका हमने गीतारहस्य के बारहवें प्रकरण (पृष्ट ३९०-३८६) में निरूपण किया है । गीता के अगले अध्यायों में जो विवेचन है, वह अर्जुन की
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