गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र ! कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधोऽभिभवत्युत ॥४॥ अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीपु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ।। ४१ ॥ संकरो नरकायैव कुलप्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो होषां लुप्तपिंडोदकक्रियाः॥ ४२ ॥ दोषैरेतैः कुलमानां वर्णसंकरकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधाश्च शाश्वताः ।। ४३ ।। उत्सनकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरके नियंत वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ॥ ss अहो वत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । यदाज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। ४५ यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ।। उन शंकाओं की निवृत्ति करने के लिये है, कि जो उसे पहले अध्याय में हुई थीं; इस बात पर ध्यान दिये रहने से गीता का तात्पर्य समझने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जाता। भारतीय युद्ध में एक ही राष्ट्र और धर्म के लोगों में फूट हो गई थी और वे परस्पर मरने-मारने पर उतारू हो गये थे। इसी 1 कारण से उक्त शङ्काएँ उत्पन्न हुई हैं। अर्वाचीन इतिहास में जहाँ-जहाँ ऐसे प्रसङ्ग आये हैं, वहाँ-वहाँ ऐसे ही प्रश्न उपस्थित हुए हैं। अस्तुआगे कुलनय से जो जो अनर्थ होते हैं, उन्हें अर्जुन स्पष्ट कर कहता है ।। (४०) कुल का क्षय होने से सनातन कुलधर्म नष्ट होते हैं, और (कुल-)धर्मों के छूटने से समूचे कुल पर अधर्म की धाक जमती है। (४१) हे कृष्ण! अधर्म के फैलने से कुलखियाँ बिगड़ती है। हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के बिगड़ जाने पर, वर्ण- सर होता है। (४२) और वर्णसकर होने से वह कुलघातक को और (समय) कुल को निश्चय ही नरक में ले जाता है, एवं पिण्डदान और तर्पणादि क्रियाओं के लुप्त हो जाने से उनके पितर भी पतन पाते हैं। (५३) कुलघातकों के इन वर्ण- सङ्करकारक दोपों से पुरातन जातिधर्म और कुलधर्म उत्सन्न होते हैं। (४४) और हे जनादन ! हम ऐसा सुनते आ रहे हैं कि जिन मनुष्यों के कुलधर्म विच्छिन्न हो जाते हैं, उनको निश्चय ही नरकवास होता है। (४५) देखो तो सही! हम राज्य-सुख-लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हुए हैं, (सचमुच) यह हमने एक बड़ा पाप करने की योजना की है ! (85) इसकी अपेक्षा मेरा अधिक कल्याण तो इसमें होगा कि मैं निःशस्त्र हो कर प्रतिकार करना छोड़ दूं, (और ये) शस्त्रधारी कौरव मुझे रण में मार डालें। सञ्जय ने कहा-
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