पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६१

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६२२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । $$ मानास्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुपं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥ सारूं । इसलिये उसे दूर करने के निमित्त तत्व की दृष्टि से भगवान् पहले इसी का विचार बतलाते हैं, कि मरना क्या है और मारना क्या ई (श्लोक ११-३०)। मनुष्य केवल देह रूपी निरी वस्तु ही नहीं है, वरन देह और प्रात्मा का समुदाय है। इनमें मैं'-प्रहाररूप से व्यक्त होनेवाला प्रात्मा नित्य और अमर है। वह माज हैकल था और कल भी रहेगा ही। अतएव मरना या मारना शम उसके लिये उपयुक्त ही नहीं किये जा सकते और उसका शोक भी न करना चाहिये। भय थाकी रह गई देह, लो यह प्रगट ही है, कि वह भनित्य और नाशवान् है । मात्र नहीं तो कल, कल नहीं तो, सौ वर्ष में सही, उसका तो निश होने ही को है-अद्य वादशतान्त वा मृत्यु प्राणिनां ध्रुवः (भाग... 11.३८) और एक देह छ भी गई, तो कमों के अनुसार आगे दूसरी देह मिले बिना नहीं रहती, अतएव उसका भी शोक करना उचित नहीं सारांश, देह या मात्मा, दोनों दृष्टियों से विचार करें तो सिद्ध होता है, कि मरे हुए का शोक करता पागलपन है। पागलपन भले ही हो पर यह अवश्य बतलाना चाहिये, कि वा. मान देह का नाश होते समय बोकेश होते हैं, उनके लिये शोक क्यों न करें। मितएव भव भगवान् इन कायिक सुख-दुःखों का स्वरूप वतला कर दिखलाते हैं, कि उनका भी शोक करना उचित नहीं है।] (१०) हे कुन्तिपुत्र ! शीतोष्ण या सुख-दुःख देनेवाले, मात्राओं अर्थात् बार सृष्टि के पदार्थों के (इन्द्रियों से) जो संयोग हैं, उनकी उत्पत्ति होती है और ना होता है। (मतएव ) वे अनित्य अर्थात् विनाशवान् हैं । हे भारत! (शोकन करके) उनको तू सहन कर । (४५) क्योंकि ई नरश्रेष्ठ ! सुख और दुःख को समान माननेवाले विस ज्ञानी पुरुष को इनकी व्यया नहीं होती, वहीं अमृतत्व अर्थाद अमृत ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त कर लेने में समर्थ होता है। [जिस पुरुष को ब्रह्मामेश्य ज्ञान नहीं हुआ और इसी लिये जिसे नाम- रूपात्मक जगत् मिथ्या नहीं जान पड़ा है वह वाह्य पदायों और इन्द्रियों के संयोग से होनेवाले शीत-टपण धादि या सुख-दुण्ड आदि विकारों को सत्य मान कर, भारमा में उनका अध्यारोप किया करता है, और इस कारण से उसको दुःख की पीड़ा होती है। परन्तु जिसने यह जान लिया है कि ये सभी विकार प्रकृति के हैं, आत्मा अकर्ता और अलिप्त है, उसे सुख और दुःख एक ही से हैं। भा अर्जुन से भगवान् यह कहते हैं, कि इस समबुद्धि से तू उनको सहन कर । और वही भयं मगले अध्याय में अधिक विस्तार से वर्णित है । शारमान में