पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६२

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7 गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । ६२३ 88 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्तस्त्वनयोस्तत्त्वदार्शभिः।। १६ ॥ "मात्रा' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है.-मीयते एभिरिति मात्राः अर्थात् जिनसे याहरी पदार्य मापे जाते हैं या ज्ञात होते हैं, इन्हें इन्द्रियों कहते पहा पर मात्रा का इन्द्रिय अर्थ न करके, कुछ लोग ऐसा भी अर्थ करते हैं, कि इन्द्रियों से मापे जानेवाले शब्द-रूप त्रादि माघ पदार्थों को मात्रा कहते हैं और धनका इन्द्रियों से जो स्पर्श अर्थात् संयोग होता है, उसे मानास्पर्श कहते हैं। इसी अयं को हमने स्वीकृत किया है। क्योंकि इस श्लोक के विचार गीता में आगे जहाँ पर माये हैं (गी. ५.२१-२३) वहाँ बास-स्पर्श' शब्द है और "मानास्पर्श' शब्द का हमारे किये हुए अर्थ के समान, अर्थ करने से इन दोनों शिन्दों का अर्थ एक ही सा हो जाता है। यद्यपि इस प्रकार ये दोनों शब्द मिलते. जलते हैं, तो मी मात्रास्पर्श शब्द पुराना देख पड़ता है। क्योंकि मनुस्मृति (६. ५७.) में, इसी अर्थ में, मात्रासा शब्द पाया है और वृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णन है, कि मरने पर ज्ञानी पुरुप के आत्मा का मात्राओं से असंसर्ग (मात्रा- संसर्गः) होता है अर्थात् वह मुक्त हो जाता है और उसे संज्ञा नहीं रहती (. माध्य. ४. ५. १४; वैसू. शांभा. १. ४. २२) । शीतोष्ण और सुख-दुःख पद उपलक्षणात्मक हैं, इनमें राग-द्वेष, सत्-असत् और मृत्यु-अमरत्व इत्यादि परस्पर विरुद्ध द्वन्द्वों का समावेश होता है । ये सब माया-सृष्टि के द्वन्द्व हैं। इसलिये प्रगट है, कि अनित्य माया-सृष्टि के इन इन्हों को शान्तिपूर्वक सह कर, इन द्वन्द्वों से युति को छुड़ाये बिना, ब्रह्म-प्राप्ति नहीं होती (गी.२.४५, ७.२८६ और गी..प्र.९ पृ. २२८ और २५४ देखो) । अय अध्यात्मशास्त्र की ष्टि से इसी थर्य को व्यक्त कर दिखलाते हैं-] (१६) जो नहीं (मसत्) है, वह हो ही नहीं सकता, और जो है (सत) उसका प्रभाव नहीं होता तत्वज्ञानी पुरुषों ने 'सत् और असद' दोनों का अन्त देख लिया है अर्थात् अन्त देख कर उनके स्वरूप का निर्णय किया है। । [इस श्लोक के 'मन्त ' शब्द का अर्थ और सिद्धान्त', सिद्धान्त ' एवं कृतान्त 'शब्दों (गी. १८. १३) के अन्त' का अर्थ एक ही है। शायतकोश (३१) में 'अन्त' शब्द के ये अर्थ है ." स्वरूपप्रान्तयोरन्तमंसिकेऽपि प्रियुज्यते "। इस श्लोक में सब का अर्थ ब्रह्मा और असद का अर्थ नाम-रूपात्मक श्य जगत है (गी..प्र.६, २२३ - २२४; और २४३- २४५ देखो) स्मरण रहे कि " जो है, उसका प्रभाव नहीं होता" इत्यादि तत्व देखने में यद्यपि सत्कार्य-वाद के समान देख पड़े, तो भी उसका अर्थ कुछ निराना है। जहाँ एक वस्तु. से दूसरी वस्तु निर्मित होती है - दाबीग से बुध-वहां सत्कार्य-वाद