पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥ अवाच्यवादांश्च वन्वदियान्त तवाहिताः। निदन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६॥ हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा मोत्यसे महोम् । तस्मादुत्तिष्ट कौतय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७॥ सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालामौ जयाजयो। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८॥ होने लगा है। गीता के और बहुतेरे श्लोक भी इसी के समान सर्वसाधारण लोगों में प्रचलित हो गये हैं। अब दुप्कीर्ति का स्वरूप यतनाते हैं- (३५)(सव) महारथी समझेगे, कि तू दर कर रण से भाग गया, और जिन्हें (आज, सू बहुमान्य हो रहा है, वे ही तेरो योग्यता कम समझने लगेंगे। (६) ऐसे ही धेरै सामर्थ्य की निन्दा कर, वेरे शत्रु ऐसी ऐसी अनेक वाते (तैरे विषय में) कहंगे मो न कहनी चाहिये। इससे अधिक दुःखकारक और है ही क्या ? (३७) मर गया तो स्वर्ग को जावेगा और जीत गया तो पृथ्वी (का राज्य) भोगेगा! इसलिये है अर्जुन ! युद्ध का निश्चय करके उठ ! । गिल्लिखित विवेचन से न केवल यही सिद्ध हुआ, कि सांख्य ज्ञान के अनुः सार मारने भरने का शोक न करना चाहिये प्रत्युत यह मी सिद होगया कि स्वधर्म के अनुसार युद्ध करना ही कर्तव्य है । तो भी अब इस शंका का उत्तर दिया जाता है, कि लड़ाई में होनेवाली हत्या का 'पाप' कर्ता को लगता है या नहीं। वास्तव में इस उत्तर की युक्तियाँ कर्मयोगमार्ग की है, इसलिये उस मार्ग की प्रस्तावना यहीं हुई है। (३) सुख-दुःख, नफा-नुकसान और जय-पराजय को एक सा मान कर फिर युद्ध में भगवा। ऐसा करने से तुझे (कोई मी) पाप लगने का नहीं। 1 [संसार में आयु बिताने के दो मार्ग हैं 1-एक सांस्य और दूसरा योग। इनमें जिस सांख्य अथवा संन्यास-मार्ग के आचार को ध्यान में लाकर अर्जुन युद छोड़ मिक्षा मांगने के लिये तैयार हुआ था, उस संन्यास मार्ग के नवज्ञानानु- सार झी आत्मा का या देह का शोक करना उचित नहीं है । भगवान ने अर्जुन को सिद्ध कर दिखलाया है, कि सुख और दुःखों को समबुद्धि से सह लेना चाहिय एवं स्वधर्म की ओर ध्यान देकर युद करना ही चत्रिय को सचित है। तथा समधुद्धि से युद्ध करने में कोई भी पाप नहीं लगता । परन्तु इस माहो (सांख्य)नमत है, कि कभी न कमी संसार छोड़ कर संन्यास ले लेना ही प्रत्येक मनुष्य का इस जगत में परमव्य है। इसलिये इष्ट जान पड़े तो अभी ही युद्ध छोड़ कर संन्यास क्यों न है न अथवा स्वधर्म का पालन ही क्यों करें