गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । I स्वधर्ममपि चावल्य न विकंपितुमर्हसि । धाद्धि युद्धाच्छ्योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥ यरच्छया चोपपलं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमाशम् ॥ ३२ ॥ अथ चेत्वमिमं धर्म्य संग्राम न करिष्यासि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि । ॥ ३३ ॥ अकीर्ति चापि भूतानि काथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । संभावितस्य चाफोतिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥ नहीं है तो भी इसका कुछ न कुछ प्रयल कारण बतलाना भावश्यक है कि एक दूसरे को पयों मारे । इसी का नाम धर्माधर्म-विवेक ई और गीता का वास्तविक प्रतिपाद्य विषय भी यही है।अय, जो चातुर्वण्र्य-व्यवस्था सांख्यमार्ग को ही सम्मत है, उसके अनुसार भी युद्ध करना क्षत्रियों का कर्तव्य है, इसलिये भगवान् कहते हैं, कि तू मरने-मारने का शोक मत कर; इतना ही नहीं बल्कि लड़ाई में मरना या मार ढालना ये दोनों बातें क्षत्रियधर्मानुसार तुम को आवश्यक ही है-] (३) इसके सिवा स्यधर्म की ओर देखें तो भी (इस समय) हिम्मत हारना मुझे उचित नहीं है। क्योंकि धर्मोचित युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय को श्रेयस्कर और कुछ हेही नहीं। i [स्वधर्म की यह उपपत्ति मागे भी दो बार (गी. ३.३५ और १८. ४७) यतलाई गई है। संन्यास अथवा सांस्य मार्ग के अनुसार ययपि कर्मसंन्यासल्पी चतुर्ष पाश्रम अन्त की सीढ़ी है, तो भी मनु आदि स्मृति-कर्ताओं का कथन है, कि इसके पहले चातुर्वर्य की व्यवस्था के अनुसार बामण को वासणधर्म और पत्रिय को क्षत्रियधर्म का पालन कर गृहस्थाश्रम पूरा करना चाहिये, अतएव इस लोक का और आगे के श्लोकं का तात्पर्य यह है, कि गृहस्थाश्रमी अर्जुन को युद्ध करना भावश्यक है। (३२) और हे पार्थ ! यह युद्ध भाप ही आप खुला हुआ स्वर्ग का द्वार ही है। ऐसा युद्ध भाग्यवान् क्षत्रियों ही को मिला करता है । (३३) अतएव यदि तू (अपने)धर्म के अनुकूल यह युद्ध न करेगा, तो स्वधर्म और कीर्ति खो कर पाप पटोरेगा; (३४) यही नहीं बल्कि (सब) लोग तेरी अक्षय्य दुष्कीर्ति गाते रहेंगे ! और अपयश तो सम्भावित पुरुष के लिये मृत्यु से भी बढ़ कर है। 1 [श्रीकृष्ण ने यही तत्व उद्योगपर्व में युधिष्ठिर को भी बतलाया है (ममा- 3. ७२.२४) विहाँ यह लोक है-" कुलीनस्य च या निन्दा बधो वाऽमित्र- किर्पणम्। वधो राजन् न तु निन्दा वेका ॥ परन्तु गीता में इसकी अपेक्षा यह अर्थ संक्षेप में है और गीता ग्रन्थ का प्रचार भी अधिक है, इस कारण गीता के "सम्भावितस्य०" इत्यादि वाश्य का कहावत का सा उपयोग " -
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