पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६७१

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६३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ss व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनंदन । वहुशाखा हनंताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥१॥ $$ यामिमां पुप्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥४२॥ कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । प्रत्येक जन्मने इसकी वड़ती होती जाती है एवं अंत में कमी न कमी सची सद्गति मिलती ही है। अब कर्मयोगमार्ग का दूसरा महत्व पूर्ण सिद्धान्त बतलाते हैं- (४१) हे कुरुनन्दन ! इस मार्ग में व्यवसाय-शुद्धि अर्याद कार्य और अकार्यका निश्चय करनेवाली (इन्द्रियरूपी) बुद्धि एक अर्थात् एकाग्र रखनी पड़ती है। क्योंकि जिनकी बुद्धि का (इस प्रकार एक) निश्चय नहीं होता, उनको बुद्धि अर्थात् वास- नाएं अनेक शाखाओं से युक्त और अनन्त (प्रकार की) होती हैं। H संस्कृत में वृद्धि शब्द के अनेक अर्थ है। ३६ वें श्लोक में यह शब्द ज्ञान के अर्थ में आया है और आगे ४८ वें श्लोक में इस 'बुद्धि' शब्द का ही " समझ, इच्छा, वासना, या हेतु" अर्थ है। परन्तु बुद्धि शब्द के पीछे व्यवसायात्मिक विशेषण है इसलिये इस श्लोक के पूर्वार्ध में टसी शब्द का अर्थ यों होता है, व्यवसाय अर्थात् कार्य-भकार्य का निश्चय करनेवाली बुद्धि-इन्द्रिय (गीतार. प्र.६ पृ. १३३- देखो)। पहले इस बुद्धि-इन्द्रिय से किसी भी वात का मना-बुरा विचार कर लेने पर फिर तदनुसार कर्म करने की इच्छा या वासना मन में हुआ करती है अतएव इस इच्छा या वासना को भी बुद्धि ही कहते हैं। परन्तु उस समय व्यवसायात्मिका ' यह विशेषण उसके पीछे नहीं लगाते । मेद दिखलाना ही भावश्यक हो, तो 'वासनात्मक ' बुद्धि कहते हैं। इस श्लोक के दूसरे चरण में सिर्फ 'बुदि' शब्द है, उसके पीछे व्यवसायात्मक' यह विशेषण नहीं है इसलिये बहुवचनान्त बुद्धयः ' से " वासना, कल्पनातरङ्ग" अर्थ होकर पूरे श्लोक का यह अर्थ होता है, कि " जिनकी व्यवसायात्मक बुद्धि अर्थात् निश्चय करनेवाली बुद्धि-इन्द्रिय स्थिर नहीं होती, उनके मन में क्षण-क्षण में नई तरङ्गे या वासनाएं उत्पन्न हुआ करती हैं।" बुद्धि शब्द के निश्चय करनेवाली इन्द्रिय' और 'वासना ' इन दोनों अयों को ध्यान में रखे विना कर्मयोग की बुद्धि के विवेचन का मर्म भली भांति समझ में आने का नहीं। व्यवसायात्मक वुदि के स्थिर या एकान न रहने से प्रतिदिन भिन्न मिन वासनाओं से मन व्यग्र हो जाता है और मनुष्य ऐसी अनेक झंझटों में पड़ जाता है, कि आज पुत्र-प्राप्ति के लिये अमुक कर्म करो,तो फल स्वर्ग की प्राप्ति के लिये अमुक कर्म करो । वस, अव इसी का-वर्णन करते हैं- (५२) हे पार्थ ! (कर्मकांडात्मक) वेदों के (फलश्रुति-युक्त) वाक्यों में भूले हुए और यह कहनेवाले मूढ़ लोग कि इसके अतिरिक दूसरा कुछ नहीं है, बढ़ा 1