गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ ४३ ।। भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहनचेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥४४॥ गुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन । निद्वो नित्यसत्त्वस्थो नियोगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥ कर कहा करते हैं, कि-(४३) "अनेक प्रकार के (यज्ञ-याग आदि) कर्मों से ही (फिर) जन्म रूप फल मिलता है और (जन्म-जन्मान्तर में): भोग तथा ऐश्वर्य मिलता है,"-स्वर्ग के पीछे पड़े हुए वे काम्य बुद्धिवाले (लोग), (४) उल्लिखित भाषण की ओर ही उनके मन आकर्षित हो जाने से, भोग और ऐश्वर्य में ही गर्क रहते हैं। इस कारण उनको व्यवसायात्मक अर्थात् कार्य-अकार्य का निश्चय करनेवाली बुद्धि (कभी भी) समाधिस्य अर्थात् एक स्थान में स्थिर नहीं रह सकती। I [ऊपर के तीनों श्लोकों का मिल कर एक वाक्य है। उसमें उन ज्ञान- विरहित कर्मठ मीमांसामागंवालों का वर्णन है, जोश्रोत-सात कर्मकाण्ड के अनु- सार आज प्रमुक हेतु की सिद्धि के लिये तो कज्ञ और किती हेतु से, सदैव स्वार्थ के लिये ही, यज्ञ-याग आदि कर्म करने में निमन्न रहते हैं। यह वर्णन उप- निपदों के आधार पर किया गया है। उदाहरणार्थ, मुण्डकोपनिपद् में कहा है- i इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेया वेदयन्ते प्रमूढाः । i नाकस्य पृष्टे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति । !" इष्टापूर्त ही श्रेष्ठ है, दूसरा कुछ भी श्रेष्ट नहीं- यह माननेवाले मूढ़ लोग स्वर्ग में पुण्य का उपभोग कर चुकने पर फिर नीचे के इस मनुष्य-लोक में आते हैं" (मुण्ड. १. २. १०) । ज्ञानविरहित कर्मों की इसी ढङ्गको निन्दा ईशा- वास्य और कठ उपनिपदों में भी की गई है (कठ. २.५ ईश. ६, १२)। पर- मेश्वर का ज्ञान प्राप्त न करके केवल कर्मों में ही फंसे रहनेवाले इन लोगों को (देखो गी.६.२१) अपने अपने कर्मों के स्वर्ग आदि फल मिलते तो हैं, पर उनकी वासना आज एक कर्म में तो कल किसी दूसरे ही कर्म में रत होकर चारों ओर घुड़दौड़ सी मचाये रहती है। इस कारण उन्हें स्वर्ग का आवागमन नसीब हो जाने पर भी मोक्ष नहीं मिलता । मोक्ष की प्राप्ति के लिये बुद्धि-इन्द्रिय को स्थिर या एकाग्र रहना चाहिये । आगे छठे अध्याय में विचार किया गया है, कि इसको एकाग्र किस प्रकार करना चाहिये । अभी तो इतना ही कहते हैं, कि] (४५) हे अर्जुन ! (कर्मकाण्डात्मक) वेद (इस रीति से) त्रैगुण्य की बातों से भरे पड़े हैं, इसलिये तू निवैगुण्य अर्थात् त्रिगुणों से अतीत, नित्यसत्वस्य और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से अलिप्त हो एवं योग-क्षेम प्रादि स्वार्थों में न पड़ कर आत्मनिष्ठ हो! i [सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों से मिश्रित प्रकृति की सृष्टि को गी. र.८०
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