गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । $$ कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥५१॥ यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेद श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥५२॥ लोक में समत्व का लक्षण बतलाया है और में तथा अगले श्लोक में भी वही वर्णित है। इस कारण यहाँ बुद्धि का अर्थ समत्वत्रुद्धि ही करना चाहिये । किसी भी कर्म की भलाई-बुराई कर्म पर अवलम्बित नहीं होती; कर्म एक ही क्यों न हो, पर करनेवाले की भली या बुरी बुद्धि के अनुसार वह शुभ अथवा अशुभ हुआ करता है। अंतः कर्म की अपेक्षा वुद्धि ही श्रेष्ठ है; इत्यादि नीति के तत्वों का विचार गीतारहस्य के चौथे, बारहवें और पन्द्रहवें प्रकरण में (पृ.६७, ३८०-३८१ और ४७३-४७८) किया गया है। इस कारण यहाँ और अधिक चर्चा नहीं करते । ४१ वें श्लोक में बतलाया ही है, कि वासनात्मक बुद्धि को सम और शुद्ध रखने के लिये कार्य-अकार्य का निर्णय करनेवाली व्यव- सायात्मक बुद्धि पहले ही स्थिर हो जानी चाहिये । इसलिये 'साम्यबुद्धि ' इस एक शब्द से ही स्थिर व्यवसायात्मक बुद्धि और शुद्धवासना (वासनात्मक बुद्धि) इन दोनों का बोध हो जाता है । यह साम्यबुद्धि ही शुद्ध आचरण अथवा कर्मयोग की जड़ है, इसलिये ३६ व श्लोक में भगवान् ने पहले जो यह कहा है, कि कर्म करके भी कर्म की बाधा न लगनेवाली युक्ति अथवा योग तुझे बतलाता हूँ, उसी के अनुसार इस श्लोक में कहा है कि “कर्म करते समय बुद्धि को स्थिर, पवित्र, सम और शुद्ध रखना ही " वद्द 'युक्ति' या 'कौशल' है और इसी को योग' कहते हैं-इस प्रकार योग शब्द की दो बार ज्याख्या की गई है।५० वें श्लोक के " योगः कर्मसु कौशलम् " इस पद का इस प्रकार सरल अर्थ लगने पर भी, कुछ लोगों ने ऐसी खींचातानी से अर्थ लगाने का प्रयत्न किया है, कि “कर्मसु योगः कौशलम्' "-कर्म में जो योग है, उसको कौशल कहते हैं। पर " कौशन " शब्द की व्याख्या करने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है, ' योग ' शब्द का लक्षण बतलाना ही अभीष्ट है, इसीलिये यह अर्थ सञ्चा f नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त जब कि कर्मसु कौशल ' ऐसा सरल अन्वय लग सकता है, तब "कर्मसु योगः" ऐसा औंधा-सीधा अन्वय करना ठीक भी नहीं है । अब बतलाते हैं कि इस प्रकार साम्यबुद्धि से समस्त कर्म करतेरहने से व्यवहार का लोप नहीं होता और पूर्ण सिद्धि अथवा मोक्ष प्राप्त हुए बिना नहीं रहता-] (११)(समत्व)बुद्धि से युक्त (जो) ज्ञानी पुरुप कर्मफल का त्याग करते हैं, वे जन्म के बन्ध से मुक्त होकर (परमेश्वर के) दुःखविरहित पद को जा पहुंचते हैं, (५२) जब तेरी बुद्धि मोह के गदले आवरण से पार हो जायगी, तब उन बातों से विरक्त हो जायगा जो सुनी हैं और सुनने को हैं।
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