पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६७७

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गीतारहस्य अवथा कर्मयोगशास्त्र । ss योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समों भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाधनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।। ४९॥ वुद्धियुक्ती जहातीइ उभे सुकृतदुष्कते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥ भिर्यात् कर्म छोड़ने का आग्रह न कर । " सारांश 'कर्म कर' कहने से कुछ यह अर्थ नहीं होता, कि फल की आशा रख और फल की प्राशा को छोड़ कहने से यह अर्थ नहीं हो जाता, कि कर्मों को छोड़ दे। अतएव इस श्लोक का यह अर्थ है, कि फलाशा छोड़ कर कन्य कर्म अवश्य करना चाहिये, किन्तु न तो कर्म की आसक्ति में फंसे और न कर्म ही छोड़े-त्यागो न युक्त इह कर्मसु नापि रागः (योग. ५. ५.५४)। और यह दिखला कर कि फल मिलने की बात अपने वश में नहीं है, किन्तु उसके लिये और अनेक बातों की अनुकूलता आवश्यक है। अठा- रहवें अध्याय में फिर यही अर्थ और भी दृढ़ किया गया है (गी. १८. १४-१६ और रहस्य पृ. ११५ एवं प्र.१२ देखो)। अव कर्मयोग का स्पष्ट लक्षण बता लाते हैं, कि इसे ही योग अथवा कर्मयोग कहते हैं-] (४८) हे धनञ्जय! आसकि छोड़ कर और कर्म की सिद्धि हो या प्रसिद्धि, .दोनों को समान ही मान कर, 'योगस्थ हो करके कर्म कर (कर्म के सिद्ध होने या निष्फल होने में रहनेवाली) समता की (मनो-)वृत्ति को ही (कर्म-) योग कहते हैं। (६) क्योंकि है धनञ्जय ! बुद्धि के (साम्य) योग की अपेक्षा (वास) कर्म बहुत ही कनिष्ठ है। (अतएव इस साम्य-) बुद्धि की शरण में जा। फलहेतुकं अर्थात् फल पर दृष्टि रख कर काम करनेवाले लोग कृपण अर्थात् दीन या निचले दर्जे के हैं। (५०) जो (साम्य बुन्दि) से युक्त हो जाय, वह इस लोक में पाप और पुण्य दोनों से अलिप्त रहता है, अतएव योग का माश्रय कर । ( पाप-पुण्य से बच कर ) कर्म करने की चतुराई (कुशलता या युक्ति) को ही (कर्मयोग) कहते हैं। i [इन श्लोकों में कर्मयोग का जो लक्षण वतलाया है, वह महत्व का है। इस सम्बन्ध में गीता-रहस्य के तीसरे प्रकरण (पृष्ठ ५५-६३) में जो विवेचन किया गया है, उसे देखो। पर इसमें भी कर्मयोग का जो तत्व-कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है।-४६ वें श्लोक में बतलाया है, वह अत्यन्त महत्व का है। 'बुद्धि' शब्द के पछि व्यवसायात्मिका' विशेषण नहीं है इसलिये इस श्लोक में उसका अर्थ 'वासना ' या 'समझ' होना चाहिये । कुछ लोग बुद्धि का 'ज्ञान' अर्थ करके इस श्लोक का ऐसा अर्थ किया चाहते हैं, कि ज्ञान की अपेक्षा कर्म हलके दर्जे का है, परन्तु यह ठीक अर्थ नहीं है। क्योंकि पीछे ४८ वें