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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६८१

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६४२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यततो हपि कौतेय पुरुषस्य विपश्चितः । इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसमं मनः ॥ ६ ॥ तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येद्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ।। किया जानेवाला मोठग, कडुवा, इत्यादि रस' ऐसा अर्थ करके कुछ लोग यह अर्थ करते हैं, कि उपवासों से शेष इन्द्रियों के विषय यदि छूट भी जाएँ, तो भी जिह्वा का रस अर्थात् खाने-पीने की इच्छा कम न होकर बहुत दिनों के निराहार से और भी अधिक तीव्र हो जाती है। और, भागवत में ऐसे अयं का एक लोक भी है (भाग. ११. ८.२०)। पर हमारी राय में गीता के इस श्लोक का ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं । क्योंकि, दूसरे चरण से वह मेल नहीं खाता। इसके अतिरिक भागवत में 'रस' शब्द नहीं रसनं' शब्द है और गीता के श्लोक का दूसरा चरण भी वहाँ नहीं है । अतएव, भागवत और गीता के लोक को एकार्थक मान लेना उचित नहीं है। अब आगे के दो श्लोकों में और अधिक स्पष्ट कर बतलाते हैं, कि बिना ब्रह्मसाक्षात्कार के पूरा-पूरा इन्द्रियनिग्रह हो नहीं सकता है- (६०) कारण यह है कि केवल (इन्द्रियों के दमन करने के लिये) प्रयत्न करने- वाले विद्वान् के भी मन को, हे कुन्तीपुत्र! ये प्रबल इन्द्रियाँ बलात्कार से मन- मानी ओर खींच लेती हैं। (६) (अतएव) इन सब इन्द्रियों का संयमन कर युक्त अर्थात् योगयुक्त और मत्परायण होकर रहना चाहिये । इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ अपने स्वाधीन हो जाय, (कहना चाहिये कि) उसकी बुद्धि स्थिर हो गई। [इस श्लोक में कहा है, कि नियमित आधार से इन्द्रियनिग्रह करके साथ ही साथ ब्रह्मज्ञान की प्राशि के लिये मत्परायण होना चाहिये, अर्थात् ईश्वर में चित्त लगाना चाहिये और ५६ श्लोक का हमने जो भर्य किया है, टिससे प्रगट होगा, कि इसका हेतु क्या है। मनु ने भी निरे इन्द्रियनिग्रह करने. वाजे पुरुष को यह इशारा किया है कि "बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कति " (मनु. २. २१५) और उसी का अनुवाद ऊपर के ६० वें श्लोक में किया गया है। सारांश, इन तीन श्लोकों का मावार्य यह है कि जिसे स्थितप्रज्ञः होना हो, उसे अपना आहार-विहार नियमित रख कर ब्रह्मज्ञान ही प्राप्त करना चाहिये, ब्रह्मज्ञान होने पर ही मन निर्विषय होता है, शरीर केश के उपाय तो ऊपरी है- सच्चे नहीं। 'मत्परायण' पद से यहाँ भक्तिमार्ग का भी प्रारंभ हो गया है (गी. ६.३४ देखो)। ऊपर के श्लोक में जो 'युक्त' शब्द है, उसका अर्थ योग से तैयार या बना हुआ है। गीता ६. १७ में 'युक्त' शब्द का अर्थ 'नियमित' है। पर गीता में इस शब्द का सदैव का अर्थ है-साम्यवद्धिका नो योग गीता में बतलाया गया है उसका उपयोग करके तदनुसार समस्त सुख-