गीता, अनुवाद और टिप्पणी -२ अध्याय । घ्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषुपजायते । संगात्संजायते कामः कामाकांधोऽभिजायते ।। ६२ ॥ कोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशावुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥ रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिद्रियैश्चरन् । आत्मवश्यौर्वधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४॥ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो धाशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।। ६५ ॥ दुःखों को शान्तिपूर्वक सहन कर, व्यवहार करने में चतुर पुरुष" (गी. ५.. १२३ देखो)। इस रीति से निष्णात हुए पुरुष को ही स्थितप्रज्ञ' कहते हैं। उसकी अवस्था ही सिद्धावस्था कहलाती है और इस अध्याय के तथा पाँचवें एवं यारहवें अध्याय के अन्त में इसी का वर्णन है। यह बतला दिया कि विषयों की चाह छोड़ कर स्थितप्रज्ञ होने के लिये क्या आवश्यक है। अब अगले श्लोकों में यह वर्णन करते हैं कि विपयों में चाह कैसे उत्पन होती है, इसी चाई से भागे चलकर काम-क्रोध मादि विकार कैसे उत्पन्न होते है और अंत में उनसे मनुष्य का नाश कैसे हो जाता है, एवं इनसे छुटकारा किस प्रकार मिल सकता है-] (६२) विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष का इन विषयों में सङ्ग बढ़ता जाता है। फिर इस सङ्ग से यह वासना उत्पन्न होती है, कि हमको काम (अर्थात वह विषय) चाहिये । और (इस काम की तृप्ति होने में विघ्न होने से) उस काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। (६३) क्रोध से संमोह अर्थात् अविवेक होता है, संमोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और पुद्धिनाश से (पुरुप का) सर्वस्व नाश हो जाता है। (६४) परन्तु अपना प्रात्मा अर्थात् अन्तःकरण जिसके काबू में है, वह (पुरुष) प्रीति और द्वेष से छूटी हुई अपनी स्वाधीन इन्द्रियों से विषयों में बर्ताव करके भी (चित्त से) प्रसन्न रहता है । (६५) वित्त प्रसन्न रहने से उसके सब दुःखों का नाश होता है, क्योंकि जिसका चित्त प्रसन्न है उसकी बुद्धि भी तत्काल स्थिर होती है। [इन दो श्लोकों में स्पष्ट वर्णन है, कि विषय या कर्म को न छोड़ स्थितप्रज्ञ केवल उनका सम छोड़ कर विषय में ही निःसङ्ग बुद्धि से बर्तता रहता है और उसे जो शान्ति मिलती है, वह कर्मत्याग से नहीं किन्तु फलाशा के त्याग से प्राप्त होती है। क्योंकि इसके सिवा, अन्य वातों में इस स्थितप्रज्ञ में और संन्यास मार्गवाले स्थितप्रज्ञ में कोई भेद नहीं है। इन्द्रियसंयमन, निरिच्छा और शान्ति ये गुण दोनों को ही चाहिये; परन्तु इन दोनों में महत्व का भेद यह है कि गीता का स्थितप्रज्ञ कर्मों का संन्यास नहीं करता किन्तु लोक- .
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