पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६८४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेसशान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥ $$ विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥. ज्ञानियों को आवश्यक होती है और जिसमें अज्ञानी लोग उलझे रहते हैं उन्हें जहा उजेला मालूम होता है वहीं ज्ञानी को अँधेरा देख पड़ता है अर्थात वह ज्ञानी को अभीष्ट नहीं रहता । उदाहरणार्थ, ज्ञानी पुरुष कास्य कर्मों को तुच्छ मानता है, तो सामान्य लोग उसमें लिपटे रहते हैं और ज्ञानी पुरुष को जो' निष्काम कर्म चाहिये, उसकी औरों को चाह नहीं होती।] (७०) चारों ओर से (पानी) भरते जाने पर भी जिसकी मर्यादा नहीं दिगती, ऐसे समुद्र में जिस प्रकार सव पानी चला जाता है, उसी प्रकार जिस पुरुप मैं समस्त विषय (उसकी शान्ति भङ्ग हुए बिना ही) प्रवेश करते हैं, उसे ही (सच्ची) शान्ति मिलती है। विषयों की इच्छा करने वाले को (यह शान्ति ) नहीं (मिलती)। [इस श्लोक का यह अर्थ नहीं है, कि शान्ति प्राप्त करने के लिये कर्म न करना चाहिये, प्रत्युत भावार्थ यह है, कि साधारया लोगों का मन फलाशा से काम्य-वासना से घबड़ा जाता है और उनके कर्मों से उनके मन की शान्ति पिगड़ जाती है। परन्तु जो सिद्धावस्था में पहुंच गया है, उसका मन फलाशा से क्षुब्ध नहीं होता, कितने ही कर्म करने को क्यों न हो, पर उसके मन की शान्ति नहीं डिगती, वह समुद्र सरीखा शान्त बना रहता है और सब काम किया करता है। श्रतएव उसे सुख-दुःख की व्यथा नहीं होती। (उक्त६ वा श्लोक और गी.४.१६ देखो)। अब इस विषय का उपसंहार करके बतलाते हैं, कि स्थितप्रज्ञ की इस स्थिति का क्या नाम है- (७१) जो पुरुष सब काम, अर्थात् आसक्ति, छोड़ कर और निःस्पृह हो करके (व्यवहार में ) वर्तता है, एवं जिसे ममत्व और अहवार नहीं होता, उसे ही शान्ति मिलती है। । [संन्यास मार्ग के टीकाकार इस 'चरति' (बर्तता है) पद का “ भीख माँगता फिरता है " ऐसा अर्थ करते हैं। परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है । पिछने ६४ वें और ६७ वें श्लोक में 'चरन् ' एवं 'चरतां' का जो अर्थ है, वही अर्थ यहाँ भी करना चाहिये । गीता में ऐसा उपदेश कहीं भी नहीं है कि स्थितप्रज्ञ भिक्षा माँगा करे। हो, इसके विरुद्ध ६४ वें श्लोक में यह स्पष्ट कह दिया है कि स्थितप्रज्ञ पुरुष इन्दियों को अपने स्वाधीन रख कर ' विषयों में बर्ते। अतएव 'चरति का ऐसा ही अर्थ करना चाहिये कि 'वर्तता है, अर्थात् 'जगत के व्यवहार करता है। श्रीसमर्थ रामदास स्वामी ने दासबोध के उत्तरार्ध में इस बात का उत्तम वर्णन किया है कि निःस्पृह' चतुर पुरुष (स्थितप्रज्ञ) व्यवहार में कैसे बर्तता है और गीतारहस्य के चौदहवें प्रकरण का विषय ही वही है।]