६४४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । नास्ति वुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥ इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रशां वायु वमिवांभसि ॥६७॥ तस्माद्यस्य महावाहो निगृहीतानि सर्वशः। इंद्रियाणांद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६॥ या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। ६९ ।। संग्रह के निमित्त समस्त कर्म निष्काम युदि से किया करता है और संन्यासमार्ग- वाला स्थितप्रज्ञ करता ही नहीं है (देखो गी.३. २५)। किन्तु गीता के संन्यासमागीय टीकाकार इस भेद को गौण समझ कर साम्प्रदायिक आग्रह से प्रतिपादन किया करते हैं कि स्थितप्रज्ञ का उक्त वर्णन संन्यासमार्ग का ही है। अव इस प्रकार जिसका चित्त प्रसन्न नहीं, उसका वर्णन कर स्थितप्रज्ञ के स्वरूप को और भी अधिक व्यक्त करते हैं- (६) जो पुरुष टक रीति से युक्त अर्थात् योगयुक्त नहीं हुआ है, उसमें (स्थिर.) बुद्धि और भावना अर्थात् दृढ़ बुद्धिरूप निष्ठा भी नहीं रहती । जिसे भावना नहीं, उसे शान्ति नहीं और जिसे शान्ति नहीं उसे सुख मिलेगा ही कहाँ से? (40) (विषयों में) सञ्चार अर्थात् व्यवहार करनेवाली इन्द्रियों के पीछे-पीछे मन जो जाने लगता है, वही पुरुष की बुद्धि को ऐसे हरण किया करता है जैसे कि पानी में नौका को वायु सींचती है। (६) अतएव हे महावाहु अर्जुन ! इन्द्रियों के विपयों से जिसकी इन्द्रियाँ चहुँ ओर से हटी हुई हों, (कहना चाहिये कि) उसी की बुद्धि स्थिर हुई। । [सारांश, मन के निग्रह के द्वारा इन्द्रियों का निग्रह करना सब साधनों का मूल है। विषयों में व्यग्र होकर इन्द्रियाँ इधर-उधर दौड़ती रहें तो मात्मज्ञान मात कर लेने की (वासनात्मक ) बुद्धि ही नहीं हो सकती। भर्य यह है कि बुद्धि न हो तो उसके विषय में दृढ़ वयोग भी नहीं होता और फिर शान्ति एवं सुख भी नहीं मिलता । गीतारहस्य के चौथे प्रकरण में दिखलाया है, कि इन्द्रियनिग्रह का यह अर्थ नहीं है कि, इन्द्रियों को एकाएक दवा कर सवकों को विलकुल छोड़ दे। किन्तु गीता का अभिप्राय यह है, कि ६४ वें श्लोक में जो वर्णन है, उसके अनुसार निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहना चाहिये।] (६) सब लोगों की जो रात है, उसमें स्थितप्रज्ञ जागता है और जब समस्त प्राणिमात्र जागते रहते हैं, तब इस ज्ञानवान् पुरुष को रात मालूम होती है। [यह विरोधामासात्मक वर्णन धानक्षारिक है। अज्ञान अन्धकार को और ज्ञान प्रकाश को कहते हैं (गी. १४.११) अर्थ यह है, कि अज्ञानी लोगों को जो वस्तु अनावश्यक प्रतीत होती है (अर्थाद उन्हें जो अन्धकार है) वही
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